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________________ प्रवचनसार अनुशीलन यथालब्ध (जैसा मिल गया, वैसा) आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि वही आहार विशेष-प्रियतारूप अनुराग से रहित है । अयथालब्ध (अपनी पसन्द का प्रयत्नपूर्वक प्राप्त) आहार तो विशेषप्रियतारूप अनुराग से सेवन किया जाता है; इसलिए अत्यन्त हिंसायतनरूप होने से युक्ताहार नहीं है और अयथालब्ध आहार लेनेवाला विशेषप्रियता रूप अनुराग से सेवन करनेवाला होने से युक्ताहारी योगी नहीं है। १०६ भिक्षाचरण से यथालब्ध आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही आरंभशून्य है । अभिक्षाचरण से प्राप्त आहार में आरंभ होता ही है; इसलिए हिंसायतन है; अत: वह आहार युक्ताहार नहीं है। ऐसे आहार के सेवन में अंतरंग अशुद्धि प्रगट ही है; इसलिए वह आहार करनेवाला साधु युक्ताहारी योगी नहीं है। दिन का आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि दिन में ही ठीक से देखा जा सकता है । रात्रि में कोई वस्तु ठीक से दिखाई नहीं देती; इसलिए रात्रि का भोजन हिंसायतन होने से युक्ताहार नहीं है और रात्रि भोजन में अंतरंग अशुद्धि व्यक्त ही है; इसलिए रात्रि में भोजन करनेवाला साधु युक्ताहारी योगी नहीं है। रस की अपेक्षा से रहित आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि वही अंतरंग शुद्धि युक्त है । रस की अपेक्षावाला आहार तो अंतरंग अशुद्धि से अत्यन्त हिंसायतन है; इसलिए युक्ताहार नहीं है। उसका सेवन करनेवाला, अंतरंग अशुद्ध पूर्वक सेवन करता है; इसलिए वह साधु युक्ताहारी योगी नहीं है। मधु-मांस रहित आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि उसी के हिंसायतनपने का अभाव है। मधु-मांस सहित भोजन तो हिंसायतन होने से युक्ताहार नहीं है और ऐसे आहार के सेवन से अंतरंग अशुद्धि व्यक्त होने से ऐसा आहार करनेवाला साधु युक्ताहारी योगी नहीं है। यहाँ मधु-मांस हिंसायतन का उपलक्षण है; इसलिए 'मधु-मांस रहित आहार ही युक्ताहार है' ह्र इस कथन से यह समझना चाहिए कि समस्त हिंसायतन शून्य आहार ही युक्ताहार है। " १०७ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में गाथा का अर्थ करने के उपरान्त कहते हैं कि निश्चयनय से कही गई ज्ञानानन्द प्राणों की रक्षारूप और रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित भाव-अहिंसा तथा परजीवों के बहिरंग प्राणों के व्यपरोपण की निवृत्ति रूप द्रव्य-अहिंसा ह्न ये दोनों प्रकार की अहिंसा युक्ताहार में ही संभव है। इसलिए जो इससे विपरीत आहार है, वह युक्ताहार नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें भावहिंसा और द्रव्यहिंसा ह्न दोनों का सद्भाव होता है। इस गाथा के भाव को पण्डित देवीदासजी २ छप्पय छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; पर वृन्दावनदासजी १ मनहरणकवित्त और १२ चौपाइयों में ह्र इसप्रकार कुल १३ छन्दों में विस्तार से समझाते हैं। मनहरणकवित्त में वे गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हैं और चौपाइयों में तत्त्वप्रदीपिका के कथन को अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करते हैं। उनके छन्दों को पढ़कर असल बात हाथ में रखे आँवले के समान स्पष्ट हो जाती है। छन्द मूलत: इसप्रकार हैं ह्र गाथा २२९ ( मनहरण ) एक बार ही अहार निश्चै मुनिराज करें, सोऊ पेट भरें नाहिं ऊनोदर को गहै। जैसो कछू पावैं तैसो अंगीकार करें वृन्द, भिच्छा आचरन करि ताहू को नियोग दिन ही में खात रस आस न धरात मधु, मांस आदि सरवथा त्यागत अजोग है । देह नेह त्यागि शुद्ध संजम के साधन को, ऐसोई अहार शुद्ध साधुनि के जोग है ।। १३० ।। मुनिराज दिन में एक बार ही आहार लेते हैं, वह भी भरपेट नहीं। वे उनोदर करते हैं, पेट को बहुत कुछ खाली रखते हैं । भिक्षा में सहजभाव से जैसा जो कुछ आहार प्राप्त हो जाता है, बिना विकल्प के उसे ही ग्रहण कर लेते हैं। किसी प्रकार के सरस भोजन की आकांक्षा बिना दिन में ही 11
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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