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________________ गाथा २२३ करते हैं। एक घड़ी २४ मिनिट की होती है। इसप्रकार वे २ घंटे और २४ मिनिट दिन में तीन बार कुल ७घंटे और १२ मिनट तक प्रतिदिन आत्मध्यान करते हैं। यदि पीछी, कमण्डलु और पोथी कीमती हुईं तो सामायिक के काल में उनकी रक्षा कौन करेगा? उक्त वस्तुओं का ग्रहस्थों के काम की नहीं होना ही उनकी रक्षा का सबसे निरापद उपाय है। ___चूँकि ये वस्तुएँ कीमती नहीं हैं; अत: कोई चुरायेगा नहीं और मुनिराजों के चित्त में उनके प्रति एकत्व-ममत्व नहीं है, राग नहीं है; अत: ये उनके चुराये जाने के भय से मुक्त रहेंगे। इसप्रकार उक्त तीनों वस्तुएँ उनके पास होकर भी उनकी नहीं हैं, उनके चित्त को आन्दोलित नहीं करती। यही कारण है कि उन्हें उपधि नहीं माना गया अथवा यह उपधि अपवाद मार्ग में अनिषिद्ध है। प्रवचनसार अनुशीलन शास्त्र तक ही सीमित है। उनके वे दोहे इसप्रकार हैं ह्न (दोहा) या में हेत यही कहत, पीछी पोथी जानु । तथा कमंडलु को गहन, यह सरधा उर आनु ।।१२१।। शुभपरिनति संजम विषै, इनको है संसर्ग । ताही तें इनको गहत, अपवादी मुनिवर्ग ।।१२२।। इसमें एकमात्र हेतु पीछी, पोथी और कमण्डल का ग्रहण करना ही है ह्न ऐसा श्रद्धान करना चाहिए। शुभपरिणति और संयम की सुरक्षा के लिए ये काम आते हैं; इसकारण ही अपवादमार्गी मुनिराज इनका ग्रहण करते हैं। इस गाथा में मात्र इतनी बात कही गई है कि जब मुनिराज अपवादमार्ग में होते हैं, तब उनके पास तीन वस्तुएँ हो सकती हैं ह्र दया का उपकरण पीछी, संयम (शुद्धि) का उपकरण कमण्डलु और ज्ञान का उपकरण शास्त्र । ये तीनों वस्तुएँ अनिन्दित, अप्रार्थनीय और रागादि की अनुत्पादक होना चाहिए। पीछी और कमण्डलु गृहस्थों के काम के नहीं हैं, इसलिए उन्हें कोई माँगेगा नहीं, इसलिए अप्रार्थनीय हैं; कीमती नहीं हैं, इसलिए कोई चुरायेगा नहीं और आकर्षक नहीं हैं. इसकारण राग को उत्पन्न नहीं करेंगे। ये दोनों तो एक-एक ही रखे जाते हैं। पर शास्त्र अनेक रखे जा सकते हैं; अत: अल्प होना चाहिए ह यह कहा है; क्योंकि अधिक होंगे तो साथ में ले चलना संभव नहीं होगा। यदि उक्त तीनों वस्तुएँ ऐसी हों कि जिन्हें बाजार में बेचकर पैसा कमाया जा सकता है, तो उनकी रक्षा के विकल्प हुए बिना नहीं रहेंगे; क्योंकि उन वस्तुओं की चोरी भी हो सकती है और उन्हें कोई माँग भी सकता है। यह तो आप जानते ही हैं कि मुनिराज प्रातः, दोपहर और सायं को प्रतिदिन तीन बार छह-छह घड़ी की सामायिक करते हैं, आत्मध्यान कोई अज्ञानी जीव किसी अन्य जीव को वस्तुत: मार तो सकता नहीं, किन्तु मारने की बुद्धि करता है, तब उसकी वह बुद्धि तथ्य के विपरीत होने से मिथ्या है; उसीप्रकार जब कोई जीव किसी को बचा तो नहीं सकता, किन्तु बचाने की बुद्धि करता है, तब उसकी यह बचाने की बुद्धि भी उससे कम मिथ्या नहीं है। मिथ्या होने में दोनों में समानता है। मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है, जो दोनों में समान रूप से विद्यमान है। तो भी बचाने का भाव पुण्य का कारण है और मारने का भाव पाप का कारण है। ये दोनों प्रकार के भाव भूमिकानुसार ज्ञानियों में भी पाए जाते हैं। यद्यपि उनकी श्रद्धा में वे हेय ही हैं, तथापि चारित्र की कमजोरी के कारण आए बिना भी नहीं रहते। ह्न मैं कौन हूँ, पृष्ठ-२७
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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