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________________ ७६ प्रवचनसार अनुशीलन नीहारादि के ग्रहण - विसर्जन संबंधी छेद के निषेधार्थ ग्रहण की जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है; इसलिए छेद के निषेधरूप ही है।" इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए कविवर वृन्दावनदासजी ९ चौपाइयों और २ दोहे ह्न इसप्रकार ११ छन्दों का तथा पंडित देवीदासजी १ दोहा और १ कवित्त ह्न इसप्रकार २ छन्दों का प्रयोग करते हैं। इनमें से वृन्दावनदासजी के कतिपय महत्त्वपूर्ण छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( दोहा ) इत शंका कोई करत, मुनिपद तो निरगंथ । तिनहिं परिग्रहगहन तुम, क्यों भाषत हौ पंथ ।। १११ । । मुनिमग दोय प्रकार है, प्रथम भेद उतसर्ग । दुतिय भेद अपवाद है, दोउ साधत अपवर्ग ।। ११२ । यहाँ पर कोई शंका करता है कि मुनिपद तो निर्ग्रन्थ दशारूप होता है; उसमें आप परिग्रह ग्रहण की बात क्यों करते हो ? इसके समाधान में कहते हैं कि मुनिमार्ग दो प्रकार का है। उसमें पहला भेद उत्सर्ग है और दूसरा भेद अपवाद है। दोनों ही मुक्ति को साधते हैं। ( चौपाई ) मुनि उतसर्ग मार्ग के माहीं । सकल परिग्रह त्याग कराहीं ।। जातैं तहां एक निजआतम । सोई गहनजोग चिदातम ।।११३ ।। तासों भिन्न और पुद्गलगन । तिनको तहां त्याग विधि सों भन ।। शुद्धपयोगदशा सो जानौ । परमवीतरागता प्रमानौ । । ११४ । । अब अपवाद सुमग सुनि भाई। जा विधि सों जिनराज बताई ।। जब परिग्रह तजि मुनिपद धरई । जथाजात मुद्रा आदरई । ।११५ । । तब वह वीतरागपद शुद्धी । ततखिन दशा न लहत विशुद्धी ।। तब सोदेश - काल कहँ देखी। अपनी शकति सकल अवरेखी ।। ११६ ।। निज शुद्धोपयोग की धारा । जो संजम है शिवदातारा ।। तासु सिद्धि के हेत पुनीती । जो शुभरागसहित मुनिरीती ।। ११७ ।। गहै ताहि तब ताके हेतो। बाहिजसंजम साधन लेतो । जे मुनिपदवी के हैं साधक। मुनिमुद्रा के रंच न बाधक ।। ११८ ।। गाथा २२२ ७७ शुद्धपयोग सुधारन कारन। आगम-उकत करैं सो धारन । दया ज्ञान संजम हित होई। अपवादी मुनि कहिये सोई । । ११९ ।। उत्सर्ग मार्ग में मुनिराज सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करते हैं; इसकारण उत्सर्ग मार्ग में तो ज्ञानानन्दस्वभावी निज आत्मा ही ग्रहण योग्य कहा है। निजात्मा से भिन्न पुद्गलादि पदार्थों के त्यागरूप परम वीतरागी शुद्धोपयोग ही उत्सर्ग मार्ग है। अब जिनेन्द्रकथित अपवाद मार्ग की बात सुनो; जिसमें समस्त परिग्रह को छोड़कर यथाजात नग्न दिगम्बर मुद्रा धारण की जाती है। तब वहाँ वीतरागपद की शुद्धि तत्क्षण विशुद्ध तो हो नहीं जाती । ऐसी स्थिति में देशकाल और अपनी शक्ति को देखकर मोक्ष प्राप्त करनेवाली शुद्धोपयोग की पुनीत धारा की सिद्धि के लिए शुभराग सहित मुनिदशा की रीति को ग्रहण किया जाता है और उसके लिए बाह्य संयम का साधन किया जाता है । वह बाह्य संयम मुनिपदवी का साधक है और मुनिमुद्रा का रंचमात्र भी बाधक नहीं है। शुद्धोपयोग को सुधारने के लिए वह आगमानुसार धारण किया जाता है। दया के लिए पीछी, ज्ञान के लिए शास्त्र और संयम (शुद्धि) के लिए कमण्डलु को ग्रहण करनेवाले मुनिराज अपवादमार्ग में हैं। इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "पूर्ण वीतरागस्वरूप आत्मा में जबतक यह जीव स्थित नहीं होता; तबतक उसे उपदेश सुनना, उपदेश देना, आहार लेना, पर जीवों की दया पालना इत्यादि विकल्प ह्न भाव आते हैं; किन्तु ऐसी उपधि का आश्रय होने पर संयम का छेद नहीं होता; अतः वास्तव में वे उपधि नहीं है । वहाँ संयम का छेद नहीं है, अपितु वह उपधि तो छेद के निषेधरूप है। छठवें गुणस्थान में विकल्प आने पर उसका लक्ष न करें, तो वे अन्य राग में जुड़ेंगे; अतः व्यवहार संयम ह्न छठवें गुणस्थान में टिका हुआ होने से वे शुभविकल्प उपधि में नहीं लिये है। मुनिराज को छठवाँ और सातवाँ गुणस्थान हजारों बार आता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग - ५, पृष्ठ १०५
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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