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________________ ul प्रवचनसार अनुशीलन अंतर और बाह्य के रूप में हिंसा दो प्रकार की है। उसके संदर्भ में जिनेन्द्र भगवान ने जैसा कहा है, तदनुसार उसके रहस्य को मैं भी यहाँ लिखता हूँ। ___जो मुनिराज अन्तर में अशुद्धोपयोगरूप वर्तन कर रहे हों; वे अपने शुद्धस्वभाव के घातक होने से प्रबल हिंसक हैं और जो मुनिराज असावधानीपूर्वक आचरण कर रहे हैं, उनसे परजीवों का घात होवे, चाहे न हो; तो भी वे अयत्नाचारी होने से अन्तर में अपनी हिंसा कर रहे हैं। अत: निश्चय से उनका मुनि पद भंग ही है ह यह सुनिश्चित करो। जो मुनिराज शुद्धोपयोग से युक्त होकर अपने ज्ञानप्राणों की निरन्तर रक्षा करते हैं; उनकी समस्त शारीरिक क्रियायें समितिरूप होती हैं; ऐसी स्थिति में कदाचित जीवों का मरण भी हो जावे तो भी बंध नहीं होता। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "मुनिराज के भूमिकानुसार शुभविकल्पों की विद्यमानता में जो विशेष राग होता है, वह प्रमादभाव होने से हिंसा का कारण है। बाह्य में परजीवों की हिंसा न भी हो; किन्तु अन्तर में प्रमादभाव विद्यमान हो तो हिंसा का दोष लगता ही है। स्वभाव के आश्रय से जितनी वीतरागता प्रगट हुई है, वह निश्चय प्रयत्न है और भूमिकानुसार जो शुभविकल्प होता है, वह व्यवहार प्रयत्न है तथा यदि भूमिका से बाहर का विकल्प उठे तो वह अप्रयत आचार होने से प्रमाद है। यही हिंसा है। ___ पर जीव का घात हो या न हो, उससे हिंसा-अहिंसा का कोई संबंध नहीं है। किसी को तीव्र राग हो और सामनेवाला जीव स्वयं मर जाए तो उस जीव की मृत्यु होने से इस जीव को हिंसा नहीं है; अपितु अन्तर में विद्यमान तीव्र राग भाव के कारण हिंसा है, पाप है। इसीप्रकार पर जीव का घात न हो; किन्तु अन्तर में कषायभावों की विद्यमानता हो, तो वह हिंसा कहलाती है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-७९ २. वही, पृष्ठ-८० गाथा २१७ ___ इससे विपरीत मुनिराज के पैर से किसी जीव का मरण हो जाये और उनके अन्तर में किसीप्रकार का कषायभाव न हो तो उन्हें हिंसा नहीं है।' ज्ञायक निर्विकल्प आत्मा में जितनी अभेद परिणति हुई है, उतनी निश्चय समिति है अथवा शुद्धात्मस्वरूप में (मुनित्वोचित) सम्यक् परिणति निश्चय समिति है और इस दशा में वर्तनेवाली ईर्या-भाषादि संबंधी शुभपरिणति व्यवहार समिति है। ___ यदि शुद्धात्मस्वरूप में सम्यक् परिणतिरूप दशा न हो तो वहाँ वर्तनेवाली शुभपरिणति हठसहित होती है, तब वह व्यवहार समिति नाम भी प्राप्त नहीं करती। छठवें गुणस्थान में भूमिका योग्य राग हो तो वीतरागता टिकी रहती है, वह अहिंसा धर्म है; किन्तु शुभराग की अति हो जावे तो अहिंसा धर्म नहीं है।" प्रश्न ह्न यहाँ यह कहा जा रहा है कि अशुद्धोपयोग के अभाववाले मुनिराजों के परप्राणों के विच्छेद के सद्भाव में भी हिंसा का अभाव सुनिश्चित है। यहाँ प्रश्न यह है कि मुनिराजों से शुद्धोपयोग के काल में परप्राणों का विच्छेद कैसे हो सकता है ? इसीप्रकार यत्नाचार अर्थात् सावधानीपूर्वक आचरण-ईर्यासमितिपूर्वक गमनागमन, हित-मित-प्रिय संभाषण के काल में शुद्धोपयोग भी कैसे हो सकता है ?" उत्तरह इस प्रश्न में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के हृदय को भी आन्दोलित किया था। गंभीर मंथन के उपरान्त उन्हें जो समाधान प्राप्त हुआ; उसे उन्होंने इस रूप में प्रस्तुत किया ह्र ___"छठवें गुणस्थान में निर्दोष आहार आदि की जो शुभवृत्ति उठती है, उसे चरणानुयोग में अशुद्धोपयोग नहीं कहा और न उसे अन्तरंग छेद कहा है; किन्तु अध:कर्मी आहार लेने की वृत्ति उठे तो अशुद्धोपयोग होने से वह अन्तरंग छेद है ऐसा कहा गया है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-८० २. वही, पृष्ठ-८१ ३. वही, पृष्ठ-८३ ४. वही, पृष्ठ-८१
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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