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________________ प्रवचनसार अनुशीलन इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी २ मनहरण और ५ दोहे ह्र इसप्रकार ७ छन्दों में और पण्डित देवीदासजी १ छप्पय, १ दोहा और १ कुण्डलिया ह्न इसप्रकार ३ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें लगभग सम्पूर्ण विषयवस्तु आ गई है; अतः वे मूलत: पठनीय हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "उपादान में शुद्धभाव प्रगट हो तब बाह्य में निमित्त कैसे होते हैं ? यह भी जानने योग्य है । अन्दर में चैतन्यलीनता पर ही उपयोग स्थिर हुआ है; अतः बाह्य में वस्त्रादि के अवलंबन की वृत्ति नहीं रहती । साधुपद तो पंचपरमेष्ठी पद है। जिन मुनिराजों के अन्तर में ज्ञायकस्वभाव का दृढ़ आश्रय वर्तता है, उन मुनिराजों को छठवें गुणस्थान में आहारादि की वृत्ति उठती है, वहाँ शास्त्र आज्ञा से विरुद्ध अशुभभाव तो नहीं होता; किन्तु शास्त्र आज्ञानुसार जो शुभभाव है, उनका भी प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) नहीं है । " उक्त सम्पूर्ण मंथन का सार यह है कि यद्यपि मुनिराजों का चेतनअचेतन पर - पदार्थों के साथ कोई संबंध नहीं रहा है; तथापि शरीर की स्थिति के लिए आहार, अविकारी निस्तरंग स्थिरता के लिए शरीर निर्वाह का अविरोधी अनशन, निर्विघ्न आत्मसाधना के लिए किया जानेवाला गिरिगुफा में निवास, आहार के लिए जाने के लिए विहार, मुनिदशारूप देहमात्र परिग्रह, तत्त्वचर्चा के कारण परिचित मुनिजन और शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य विषयों की कथा ह्र ये सात बातें ऐसी हैं कि जो सन्तों के जीवन में छटवें गुणस्थान की भूमिका में हो सकती हैं; होती हैं। आचार्यदेव यहाँ कह रहे हैं कि यदि इनसे बच पाना संभव न हो तो भी उनके सम्बन्ध में होनेवाले विकल्पों से चित्त भूमि को चित्रित होने देना योग्य नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-७० ५४ गाथा २१५-२१६ ५५ ये सभी अशुद्धोपयोग की दशा में होनेवाली क्रियाएँ हैं और यहाँ कहा जा रहा है कि अशुद्धोपयोग छेद है, हिंसा है; अतः यदि उक्त सात बातों को छोड़ना संभव न हो तो उनमें सावधानी वर्तना अत्यन्त आवश्यक है। ध्यान देने की बात यह है कि जब अशन, अनशन, गिरिगुफा के निवास, आहार के लिए विहार, देहमात्र परिग्रह, तत्त्वचर्चा के लिए परिचय और बोलना ह्न ये भी निषेध्य हैं; तब देह पोषण के लिए अशन (आहार), प्रतिष्ठा के लिए अनशन, भीड़भाड़ वाले स्थानों में निवास, अनावश्यक अनर्गल विहार, मुनिदशा में पूर्णत: अस्वीकृत परिग्रह, अज्ञानी - अव्रतियों से घना परिचय और व्यर्थ की कथाओं से मनोरंजन ह्न ये सब मुनिदशा में कैसे संभव हैं ? जब उक्त कार्य भी संभव नहीं है तो फिर मंदिर निर्माण आदि गृहस्थोचित कार्यों को करना-कराना तो बहुत दूर, उनकी अनुमोदना भी कैसे हो सकती है ? यह एक गंभीरता से विचार करने की बात है । चेतन तत्त्व से भिन्न जड़ तत्त्व की सत्ता भी लोक में है। आत्मा में अपनी भूल से मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है तथा शुभाशुभ भावों की परिणति में ही यह आत्मा उलझा (बंधा) हुआ है। जब तक आत्मा अपने स्वभाव को पहिचान कर आत्मनिष्ठ नहीं हो पाता ; तब तक मुख्यत: मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी। इनकी उत्पत्ति रुके, इसका एक मात्र उपाय उपलब्ध ज्ञान का आत्म-केन्द्रित हो जाना है। इसी से शुभाशुभ भावों का अभाव होकर वीतराग भाव उत्पन्न होगा और एक समय वह होगा कि समस्त मोह-राग-द्वेष का अभाव होकर आत्मा वीतराग-परिणतिरूप परिणत हो जायेगा। दूसरे शब्दों में पूर्ण ज्ञानानन्दमय पर्यायरूप परिणमित हो जायेगा । ह्न मैं कौन हूँ, पृष्ठ- १०
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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