SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अनुशीलन यदि भलीभाँति उपयुक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा का कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो अन्तरंग छेद से सर्वथा रहित होने से आलोचना पूर्वक क्रिया से उसका प्रतिकार हो जाता है; किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसम्बन्धी छेद होने से छेद में साक्षात् उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से आलोचनापूर्वक उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा संयम का प्रतिसंधान होता है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को २ छप्पय छन्दों में दोनों प्रकार के छेदों को बड़ी ही सरलता से स्पष्ट कर देते हैं। (छप्पय) जो मुनि जतन समेत, काय की क्रिया अरंभत । शयनासन उठिचलन, तथा जोगासन थंभत ।। तहँ जो संजम घात होय, तब सो मुनिराई। आपुअलोचनासहित, क्रियाकरिशुद्धि लहाई।। यह बाहिज संजम भंग को, आपुहि आपसुदण्डविधि। करिशुद्ध होंहि आचार में, जे मुनिवृन्द विशुद्धनिधि ।।८२।। यद्यपि मुनिराज शयनासन, उठने-बैठने आदि काय संबंधी क्रियाओं में आगमानुसार पूरी सावधानी रखते है; तथापि वहाँ भी कुछ न कुछ संयम का घात हो जाता है; तब वे मुनिराज अपने आप आलोचना करके शुद्धि कर लेते हैं। ये संयम का बाह्य भंग है, इसमें दण्डविधि स्वयं ही निश्चित करके शुद्धि की जाती है; क्योंकि वे मुनिराज अंतर से पूर्णत: शुद्ध ही हैं। जिस मुनि का उपयोग, सुघट में भंग भया है। रागादिक मल भाव, रतन में लागि गया है ।। तिनके हेत उपाय, जो जिनमारग के माहीं। जती क्रिया में अतिप्रवीन, मुनिराज कहाहीं।। गाथा २११-२१२ तिनके ढिग जाय सो आपनो, दोष प्रकाशै विनय कर। जो कहैं दंड सो करै तिमि, तब है शुद्धाचारधर ।।८३।। जिन मुनिराजों के उपयोग में शरीरादिक क्रिया के कारण भंग हुआ हो और उसके कारण रत्नत्रय में रागादिक मलभाव लग गया हो; उसकी शुद्धि के लिए जिनमार्ग की यति क्रिया में अति प्रवीण मुनिराज के पास जाकर विनयपूर्वक अपने दोषों को प्रकाशित करें और जो दण्ड विधान वे कहें, तदनुसार उस दोष का परिमार्जन करें, तब वे मुनिराज शुद्ध आचरण के धारण करनेवाले होंगे। पण्डित देवीदासजी भी इन गाथाओं के भाव को दो इकतीसा सवैयों में इसीप्रकार प्रस्तुत करते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___“मुनि के (मुनित्वोचित) शुद्धोपयोग अन्तरंग अथवा निश्चय प्रयत्न है तथा शुद्धोपयोग दशा में हठ आदि से रहित देहचेष्टादिक संबंधी वर्तता हुआ शुभोपयोग बहिरंग अथवा व्यवहारप्रयत्न है। ___यदि शुद्धोपयोगदशा के बिना वर्तनेवाला शुभोपयोग हठपूर्वक हो तो ऐसा शुभोपयोग व्यवहारप्रयत्न को प्राप्त नहीं होता। अन्तर में वीतरागभाव से रहित २८ मूलगुणों के पालन रूप शुभविकल्प छठवीं भूमिका के योग्य शुभोपयोग नहीं है; अपितु हठपूर्वक धारण किया गया शुभोपयोग है। सहज शुद्धोपयोग दशापूर्वक छठवें गुणस्थान में जो शुभविकल्प होते हैं, वे शुभोपयोगरूप व्यवहारप्रयत्न हैं। अन्तर में कषाय रहित निश्चयप्रयत्न विद्यमान हो तो शुभभाव भी व्यवहारप्रयत्न कहलाते हैं; किन्तु वीतरागभाव के बिना मात्र शुभपना मुनिदशा का व्यवहारप्रयत्न भी नहीं कहलाता । अन्तर में वीतरागभाव टिकायें रखते हुए जो २८ मूलगुणों की वृत्ति उठती है; उसे व्यवहारप्रयत्न कहते हैं। वास्तव में मुनिदशा तो अन्तर वीतरागता के आधार से स्थित है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-६४-६५
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy