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________________ २८ प्रवचनसार अनुशीलन मुनिराज अन्तर चैतन्यस्वभाव की गुफा में जाकर आत्मा को ध्याते हैं, तब उनके ह्र १. मूर्छा और आरम्भ से रहितता होती है। २. उपयोग और योग की शुद्धि होती है। ३. पर की अपेक्षा से रहितपना होता है ह्र इसप्रकार उनके अन्तरंग भावलिंग पाया जाता है। बाह्य में द्रव्यलिंग हो, किन्तु अन्तर में भावलिंग न हो तो वह मुनि नहीं है। उसीप्रकार अन्तरंग में भावलिंग हो और बाहर द्रव्यलिंग न हो ऐसा संभव नहीं है।" द्रव्यलिंग और भावलिंग के संबंध में हमारी बहुत गलत धारणाएँ हैं। 'द्रव्यलिंग' शब्द सुनते ही हमें ऐसा लगने लगता है जैसे मुँह में कड़वाहट-सी आ गई हो। द्रव्यलिंग हमें बिल्कुल हेय लगता है और भावलिंग साक्षात् मोक्षस्वरूप ही प्रतीत होता है; लेकिन हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति द्रव्यलिंग और भावलिंग ह दोनों के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता। सिद्धचक्रमहामण्डलविधान की जयमाला में कहा है ह्र । भावलिंग बिन कर्म खिपाई, द्रव्यलिंग बिन शिवपद जाई। यो अयोग कारज नहीं होई, तुम गुण कथन कठिन है सोई।। हे भगवन् ! द्रव्यलिंग के बिना कोई मोक्ष चला जाय और भावलिंग के बिना कर्मों का नाश हो जाय जिसप्रकार यह असंभव है। उसीप्रकार तुम्हारे गुणों का कथन करना भी कठिन है। जब मोक्ष प्राप्त करने के लिए दोनों ही लिंग अनिवार्य हैं, तब एक बुरा और दूसरा अच्छा ह्र यह कैसे हो सकता है? यदि कोई कहे कि शास्त्रों में तो द्रव्यलिंगी मुनियों की बहुत निंदा की गई है तो उससे कहते हैं कि भाई! जहाँ द्रव्यलिंगी मुनियों की निंदा की बात आती है, वह भावलिंग के बिना जो द्रव्यलिंग है, उसकी निंदा है; भावलिंग के साथ जो द्रव्यलिंग है, उसकी नहीं। वस्तुतः द्रव्यलिंग और भावलिंग तो साथ-साथ ही होते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-४४ गाथा २०५-२०६ यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि जिसप्रकार भावलिंग के बिना होनेवाले द्रव्यलिंग की निंदा होती है; उसीप्रकार द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग की भी निंदा होनी चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं होता। - इसका उत्तर यह है कि द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग होता ही नहीं है। पर द्रव्यलिंगभावलिंग के बिना हो जाता है। जब हम किसी को भावलिंगी कहते हैं, तब उसका अर्थ यह होता है कि वह भावलिंगी तो है ही, द्रव्यलिंगी भी है। यही कारण है कि शास्त्रों में भावलिंग की निंदा नहीं है। इस संबंध में दूसरा विवेचनीय बिन्दु यह है कि द्रव्यलिंग बाह्यक्रिया का नाम है और श्रामण्य के लिए उसका होना भी अनिवार्य है। शरीर की नग्नता आदि क्रिया संबंधी भाव, शुभभाव हैं और भावलिंग शुद्धोपयोगरूप है, शुद्धपरिणतिरूप है । यद्यपि द्रव्यलिंग के बिना मोक्ष नहीं होता, तथापि द्रव्यलिंग से भी मोक्ष नहीं होता; क्योंकि द्रव्यलिंग तो जड़ की क्रिया और शुभभावरूप है और मोक्ष जड़ की क्रिया और शुभभावों से नहीं होता। गाथा २०५ में द्रव्यलिंग का जो स्वरूप कहा है, उसमें जो 'यथाजातरूप' कहा है; उसका तात्पर्य यह है कि जैसा माँ के पेट से जन्म लिया था, वैसा ही रूप । उस रूप के साथ एक लंगोट भी नहीं रख सकते। इसप्रकार हम देखते हैं कि मुक्तिमार्ग में इन दोनों का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है; पर बात यह है कि शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणतिरूप होने से भावलिंग मुक्ति का साक्षात् कारण है, निश्चयकारण है। यद्यपि शुभक्रिया और शुभभावरूप होने से द्रव्यलिंग साक्षात् कारण नहीं है, निश्चय कारण नहीं है; तथापि भावलिंग का सहचारी होने से उपचरित कारण है, परम्परा कारण है, व्यवहार कारण है और मुक्तिमार्ग में उसका होना भी अनिवार्य है। मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय भावों के अभावरूप शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोग का नाम भावलिंग है और छटवें गुणस्थान के योग्य पंचमहाव्रतादिकेशुभभाव
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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