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________________ गाथा २०४ २३ जिसकी बुद्धि निर्मल हुई है, उसे ही सच्चा मुनिपना हो सकता है, अन्य को नहीं।" इसप्रकार इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि जो दीक्षार्थी परपदार्थों से एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि तोड़कर अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में ही अपनापन स्थापित कर; उसमें ही जम जाता है, रम जाता है और तत्काल उत्पन्न हुए बालक के समान नग्न दिगम्बर दशा को धारण करता है; वह दीक्षार्थी ही मुक्तिपद को प्राप्त करता है। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-३६-३७ प्रवचनसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "वह श्रामण्यार्थी ऐसा निश्चय करता है कि देह-देवल में विराजमान मैं स्वयं आत्मा किंचित्मात्र भी पर का नहीं हूँ और परपदार्थ मेरे नहीं हैं। मैं शरीर, मन, वाणी, स्त्री, कुटुंब परिवार से भिन्न हूँ। देव-शास्त्र-गुरु भी मेरे नहीं हैं और मैं उनका नहीं हूँ। ___आत्मा में उत्पन्न होनेवाले पुण्य-पाप भी मेरे नहीं हैं, वे मुझसे भिन्न पर हैं। पुण्य-पाप मुझमें उत्पन्न होने पर भी मैं उनका कदापि नहीं हूँ। तीनों काल पुण्य-पाप और शरीर से रहित जैसा मैं असंगतत्त्व हूँ, वैसा ही असंगतत्त्व वर्तमान में हूँ। पारमार्थिक दृष्टि से मेरा किसी परपदार्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। छह द्रव्यों से व्याप्त इस लोक में अपने आत्मा के बिना दूसरा कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है।' मैं चिदानन्द ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ। शरीर तथा रागादि से भिन्न हूँ ह्र ऐसा ज्ञान-श्रद्धान तो गृहस्थावस्था में भी था; किन्तु अब स्वभावाश्रय के कारण अंतर में ध्यान की लीनता कर चारित्र प्रगट हुआ है। अन्तरंग से राग का अपनापन टूटता जा रहा है और सहज यथाजातरूपधरपना प्राप्त हुआ है, इसी का नाम भावलिंगी मुनिदशा है। सच्चे भान बिना यथार्थ मुनिपना नहीं होता। आत्मा का जो मूलभूत ज्ञानानन्दस्वभाव है, उसकी प्राप्ति का नाम यथाजातरूपधरपना है ह्र ऐसी अंतरदशा-पूर्वक मुनिपद होता है।' भगवान आत्मा का परपदार्थों के साथ ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को छोड़कर अन्य तादात्म्य संबंध, संयोग संबंध, लक्ष्य-लक्षण संबंध, गुण-गुणी संबंध इत्यादि कोई भी संबंध नहीं है।' इसप्रकार समस्त संबंधों का निषेध होने से यथार्थ निर्णयपूर्वक १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-३५ २. वही, पृष्ठ-३५ ३. वही, पृष्ठ-३६ ४. वही, पृष्ठ-३६ आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यान रूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्ततः यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। सुनकर नहीं, पढकर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है। जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसी समय आत्म प्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसी समय होता है; सबकुछ एकसाथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एक नाम आत्मानुभूति है। ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२२१
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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