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________________ प्रवचनसार अनुशीलन दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि दीक्षार्थी को दी जाने वाली शिक्षा मुझे दीजिए। गुरु कहते हैं कि सुख देने वाली एकमात्र दीक्षा है; तुम उसे स्वीकार करो। यह दीक्षा शील और सुख की समुद्र है, मुक्ति का मार्ग है और जिसमें पाँच घर से भिक्षा लेने का विधान है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "देह-मन-वाणी आत्मा का स्वरूप नहीं है, पुण्य-पाप आत्मा का कर्तव्य नहीं है। आत्मा तो ज्ञानस्वभावी है ह ऐसे आत्मा के ज्ञानश्रद्धानपूर्वक उसमें रमणता करने से वीतरागी मुनिपना होता है, तत्पश्चात् बाहा में शरीर की नग्नदशा होती है। प्रथमत: मुनिपना अंगीकार करनेवाले जीव को आत्मा सहज आनन्दस्वरूप है ह ऐसा सच्चा श्रद्धान-ज्ञान होना चाहिए। स्वभावदृष्टि में समस्त विभावों को टालनेरूप दृष्टि हैं। उस दृष्टि के साथ पुरुषार्थ से गुणस्थानों के सामान्य क्रमानुसार प्रथमतः अशुभ परिणति छूटती है, कुटुम्ब आदि का अशुभराग छूटता है, पश्चात् धीरे-धीरे शुभराग को भी छोड़ता है। इसप्रकार आत्मस्वभाव के भानसहित गृहवास और कुटुम्ब आदि का अशुभराग छोड़ता है और जबतक स्वभाव में ठहर नहीं पाता; तबतक व्यवहार से पंचाचारों को अंगीकार करता हैं। यद्यपि वह शुभराग है; तथापि श्रद्धा अपेक्षा उसका निषेध ही वर्तता है; किन्तु स्वयं की कमजोरीवश राग छूटता नहीं है ह्र यह जानकर शुभराग में प्रवर्तन करता है। दृष्टि तो अखण्ड ज्ञानस्वभाव पर ही है। वहाँ श्रद्धा अपेक्षा तो शुभभावों का निषेध ही है। आत्मश्रद्धान होने से वह उसका त्यागी ही है, फिर भी अशुद्ध उपादानगत योग्यता के कारण अभी तक शुभराग छूटा नहीं है; इसलिये ऊपर कहे अनुसार पंचाचारों का पालन/ग्रहण करता हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१३ २. वही, पृष्ठ-२८ गाथा २०२-२०३ जैनधर्म की परिपाटी तो ऐसी है कि प्रथम तत्त्वज्ञानपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट हो, तत्पश्चात् चरणानुयोग अनुसार चारित्र अंगीकार करें ह्र ऐसे मुनिपने का इच्छुक जीव घर-परिवार से विदाई लेकर पंचाचार को अंगीकार करता है। मुनिदीक्षा लेने का इच्छुक जीव आत्मा के भानपूर्वक विशेष गुणवान मुनि के समीप जाकर, उन्हें प्रणाम कर उनसे दीक्षा की आज्ञा माँगता है। वास्तव में नियम तो यह है कि मुनिपद का इच्छुक जीव प्रथमतः द्रव्यानुयोग अनुसार तत्त्वज्ञान का अभ्यास कर, यथार्थ श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक उदासीन परिणाम रखकर, परिषहादि सहन करने की सामर्थ्य हो तो स्वयं दीक्षा लेने जाता है और फिर गुरु उसे योग्य जानकर दीक्षा देते हैं।' दीक्षाचार्य गुणाढ्य, कुलविशिष्ट, रूपविशिष्ट, वयविशिष्ट तथा श्रमणों को अत्यन्त प्रिय हैं ह्र उनके पास मुनिपद का इच्छुक जीव दीक्षा ग्रहण करने के लिए जाता है और कहता है कि हे प्रभो ! आत्मस्वभाव के आनन्द में रमण करने के लिए, लीनता करने के लिए आप मुझ पर कृपा करो। हे भाई ! देखो कितना विनय ! आत्मा का भान तो है और उसमें लीनता भी स्वयं को करनी है; तथापि कहते हैं कि हे नाथ ! आत्मानुभव से मुझे अनुगृहीत करो। इसप्रकार मुनिपने का इच्छुक जीव आचार्य के समीप आकर विनती करता है, तब आचार्यदेव उस श्रामण्यार्थी की योग्यता और वैराग्य की उत्कृष्टता देखकर आशीर्वाद स्वरूप कहते हैं कि ह्र'तुझे शुद्धात्मतत्त्व के अनुभव की सिद्धि हो।" ____ उक्त सम्पूर्ण मंथन का सार यह है कि जिसे मुनिधर्म की दीक्षा लेनी १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-२९ २. वही, पृष्ठ-३१ ३. वही, पृष्ठ-३१-३२ ४. वही, पृष्ठ-३३-३४ ५. वही, पृष्ठ-३४
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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