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________________ गाथा २७१ २३५ प्रवचनसार गाथा २७१ इस गाथा में संसारतत्त्व के स्वरूप का उद्घाटन किया गया है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छदा समये । अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ।।२७१।। (हरिगीत) अयथार्थवाही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में। कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ||२७१|| भले ही वे द्रव्यलिंगी मुनिराज जिनशासन में ही क्यों न हों; तथापि वे 'तत्त्व यह है' ह्र इसप्रकार निश्चयवान वर्तते हुए पदार्थों को अयथार्थ (गलत) रूप में ग्रहण करते हैं; अतः वे अनन्त कर्मफलों से भरे हुए चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करेंगे। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "जो द्रव्यलिंगी श्रमण स्वयं के अविवेक से पदार्थों के स्वरूप को अन्यथा ही जानकर, स्वीकार कर 'तत्त्व अर्थात् वस्तुस्वरूप ऐसा ही है' ह्र ऐसा निश्चय करते हुए; निरन्तर एकत्रित किये जानेवाले महामोहमल से मलिन चित्तवाले होने से नित्य ही अज्ञानी रहते हैं; वे भले ही जिनमार्ग में स्थित हों; तथापि परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वस्तुतः श्रमणाभास ही हैं। अनंत कर्मफल के उपभोग के भार से भयंकर अनन्तकालतक अनन्त भवान्तररूप परावर्तनों से अस्थिर वृत्तिवाले रहने से उन द्रव्यलिंगी मुनिराजों को संसारतत्त्व जानना।" इस गाथा के भाव को आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। पंडित देवीदासजी इस गाथा के भाव को एक छन्द में हूबहू प्रस्तुत कर देते हैं; पर कविवर वृन्दावनदासजी १ छप्पय और ४ दोहे ह्न इसप्रकार कुल मिलाकर ५ छन्दों में विस्तार से प्रस्तुत करते हैं। उनमें से कुछ दोहे इसप्रकार हैं ह्न (दोहा) जद्दिप मुनिमुद्रा धरै, तद्दिप मुनि नहिं सोय । सोई संसृत तत्त्व है, इहाँ न संशय कोय ।।९७।। ताको फल परिपूर्ण दुख, पंच पराव्रतरूप। भमै अनन्ते काल जग, यों भाषी जिनभूप ।।१८।। और कोइ संसार नहिं, संसृत मिथ्याभाव । जिन जीवनि के होय सो, संसृततत्त्व कहाव ।।९९।। द्रव्यलिंगी मुनि यद्यपि मुनिभेष में रहते हैं; तथापि वे सच्चे मुनि नहीं हैं। वस्तुत: वे ही संसार तत्त्व हैं। इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है। इसका फल परिपूर्ण दुःख है। ऐसे जीव पंचपरावर्तनरूप संसार में अनन्त काल तक भटकते रहते हैं। ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। मिथ्याभाव ही संसार है। इसके अतिरिक्त संसार कुछ भी नहीं है। जिन जीवों के यह मिथ्याभाव रहता है; वे संसारतत्त्व कहे जाते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न ___"अज्ञानी जीव बाह्य में नग्न दिगम्बर मुनि हुआ हो, हजारों रानियों को छोड़कर पाँच महाव्रतादि का पालन करता हो; तथापि परपदार्थ और पुण्य से धर्म माननेवाली पराधीन दृष्टि के कारण परमार्थ श्रमणता को प्राप्त नहीं करता; अतः वह वास्तव में श्रमणाभास है।' एक चैतन्यस्वभाव की रुचि करने पर निमित्त की रुचि छूटती है, पुण्य की रुचि छूटती है, अधूरापन भी छूटता है त यही एकमात्र यथार्थ उपाय है। अज्ञानी की दृष्टि संयोग पर होने से वह चाहे जो क्रिया करें, किन्तु वह श्रमणाभास है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४५५ ४. वही, पृष्ठ ४५५
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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