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________________ २३० प्रवचनसार अनुशीलन यद्यपि यह सम्पूर्ण कथन श्रमणों के लिए ही किया गया है; तथापि श्रावकों को भी इसका लाभ लेना चाहिए। इसके उपरांत इस अधिकार का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न ( शार्दूलविक्रीडित ) इत्यध्यास्य शुभोपयोगजनितां कांचित्प्रवृत्तिं यति: सम्यक् संयमसौष्ठवेन परमां क्रामन्निवृत्तिं क्रमात् । हेलाक्रान्तसमस्तवस्तुविसरप्रस्ताररम्योदयां ज्ञानानन्दमयीं दशामनुभवत्वेकान्तत: शाश्वतीम् ।।१७।। (मनहरण) इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही। शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके।। सम्यक्प्रकार से संयम के सौष्टव से। आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके ।। अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय । सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही लख लो।। ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः। अपने में आप ही नित अनुभव करो ।।१७।। इसप्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति सम्यक्त्व सहित संयम के सौष्ठव से क्रमशः परमनिवृत्ति को प्राप्त होता हुआ; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तु समूह के विस्तार को लीलामात्र में प्राप्त हो जाता है, जान लेता है; हे मुनिवरो! ऐसी शाश्वत ज्ञानानन्दस्वभावी दशा का एकान्ततः अपने में आप ही नित्य अनुभव करो। इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "शुभोपयोगी मुनिराज सम्यक्प्रकार से आराधना करते हुए परम गाथा २७० २३१ वीतरागी दशा को प्राप्त करते हैं। मुनिराज को शुभोपयोग की मंद और शुद्धोपयोग की मुख्य प्रवृत्ति है। ___मुनिराज शुभप्रवृत्ति के कारण वीतरागदशा को प्राप्त नहीं करते। शुभोपयोग उनके लिये आदरणीय नहीं है, क्योंकि वह पुण्य है; किन्तु जब स्वभावस्थिरता नहीं होती, तब उन्हें शुभपरिणाम आते हैं। शुभ का सेवन करने पर वीतरागदशा प्राप्त होती है ह्न यह कथन उपचारवश किया गया है। ___ अरे भाई! वीतरागदशा शुभस्वभाव के कारण नहीं; अपितु शुद्धस्वभाव के कारण प्राप्त होती है, किन्तु यह शुभोपयोग अधिकार है; अतः शुभोपयोग पर आरोप किया गया है। वे मुनिराज क्रम-क्रम से वीतरागदशा को पाकर सर्वज्ञदशा को प्रगट करते हैं। आत्मस्वरूप में शाश्वत विद्यमान ज्ञानानन्दमयी मोक्षदशा का एकांत अनुभव ही यथार्थ अनुभव है। अन्य कोई अनुभव करने योग्य नहीं है।" ___ अधिकार के अन्त में आचार्यदेव आत्मा का अनुभव करने की प्रेरणा देते हुए यह कहते हैं कि भले ही भूमिकागत कमजोरी के कारण कुछ काल शुभोपयोग में जावे; फिर भी सम्यग्दर्शन सहित संयम के बल से इन शुभभावों से भी परम निवृत्ति को प्राप्त कर श्रमण जन लीलामात्र में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए श्रमणजनो! ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली ध्रुव अपने आत्मा में अपनापन करो; उसमें ही समा जावो। - इसप्रकार चरणानुयोगसूचक चूलिका नामक महाधिकार में समागत शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार समाप्त होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४४९ ___ आत्मार्थी पर को भी जानते हैं, पर उससे कुछ पाने के लिए नहीं, अपनाने के लिए भी नहीं; 'पर' से भिन्न 'स्व' की पहचान के लिए ही वे पर को जानते हैं। ह्रतीर्थकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१२९
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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