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________________ 96 n परम ध्यान में लीनता आप कीनी, न हटते कभी घोर उपसर्ग दीनी । सु आतमबली वीर्य की ढाल धारी, परम गुरु जजूँ अष्ट द्रव्यं सम्हारी ।।५।। ॐ ह्रीं श्री वीर्याचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।११४।। प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि तपः अनशनं जो तपें धीर-वीरा, तजें चारविध भोजनं शक्ति धीरा । कभी मास पक्षं कभी चार त्रय दो, सु उपवास करते जजूँ आप गुण दो ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्री अनशनतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।११५ ।। सु ऊनोदरी तप महास्वच्छकारी, करे नींद आलस्य का नहिं प्रचारी । सदा ध्यान की सावधानी सम्हारे, मैं गुरु को करम घन विदारें ।।७।। ॐ ह्रीं श्री अवमौदर्यतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।११६।। कभी भोजना हेतु पुर में पधारें, तभी दृढप्रतिज्ञा गुरु आप धारें । यही वृत्ति - परिसंख्यान तप आशहारी, जूँ जिन गुरु जो कि धारें विचारी ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्री वृत्तिपरिसंख्यानतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।। ११७ ।। कभी छह रसों को कभी चार त्रय दो, 1 तजें राग वर्जन गुरु लोभजित हो धरें लक्ष्य आतम सुधा सार पीते, जूँ मैं गुरु को सभी दोष बीते ।। ९ ।। ॐ ह्रीं श्री रसपरित्यागतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। ११८ ।। कभी पर्वतों पर गुहा वन मशाने, धरें ध्यान एकांत में एकताने । u
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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