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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि वीरसेना सुतं कर्मसेना हतं, सेनशूरं जिनं इन्द्र से वन्दितं ।। पुण्डरीकं नगर भूमिपालक नृपं, हैं पिता ज्ञानसूरा करूँ मैं जपं ।।१७।। ॐ ह्रीं श्री वीरसेनाजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१०६।। नगर विजया तने देव राजा पती, अर उमामात के पुत्र संशय हती। जिन महाभद्र को पूजिये भद्रकर, सर्व मङ्गल करै मोह सन्ताप हर ।।१८।। ॐ ह्रीं श्री महाभद्रजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१०७।। है सुसीमा नगर, भूप भूति तवं, मात गङ्गा जने द्योतने त्रिभुवनं । लाक्षणं स्वस्तिकं जिनयशोदेव को, पूजिये वन्दिये मुक्ति गुरुदेव को।।१९।। ॐ ह्रीं श्री देवयशोजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१०८।। पद्मचिह्न धरे मोह को वश करे, पुत्र राजा कनक क्रोध को क्षय करे। ध्यान मण्डित महावीर्य अजितं धरे, पूजते जास को कर्मबन्धन टरे।।२०।। ॐ ह्रीं श्री अजितवीर्यजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१०९।। (दोहा) राजत बीस विदेह जिन, कबहिं साठ शत होय। पूजत वन्दत जास को, विघ्न सकल क्षय होय ।। ॐ ह्रीं श्री अस्मिन् बिम्बप्रतिष्ठामहोत्सवे मुख्यपूजाहपञ्चमवलयोन्मुद्रित|विदेहक्षेत्रे सुषष्ठिसहितैकशतजिनेशसंयुक्तनित्यविहरमाणविंशतिजिनेभ्यः पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। मङ्गल प्रभात है ज्ञान सूर्य का उदय जहाँ, मङ्गल प्रभात कहलाता है। मिथ्यात्व महातम हो विनष्ट, सम्यक्त्व कमल विकसाता है ।। वस्तु का रूप यथार्थ दिखे, नहिं इष्ट-अनिष्ट दिखाता है। हैभिन्न चतुष्टयवान द्रव्य, पर लक्ष्य नहीं हो पाता है।। अतएव विकारी भाव रहित, निज सुख अनुभूति होती है। फिर स्वयं तृप्त उस ज्ञानी के, इच्छा पिशाचनी भगती है।। तत्क्षण संवरमय भावों से, नवबंध पद्धति रुकती है। झड़ते हैं स्वयं कर्म बंधन, शिवरमणी उसको वरती है।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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