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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 217 कृश हैं चार कषायें, चउ गति भव संसृति से जो भयभीत। । पाँचों आस्रव से विरक्त पंचेन्द्रिय विजयी को वन्दूँ।।4।। दया करें छहकाय जीव पर छह अनायतन रहित प्रशान्त। सप्त भयों से मुक्त सभी को अभयदान दें उन्हें नमन।।5।। नष्ट हुए आरम्भ-परिग्रह अष्ट कर्म-संसार विनष्ट । शोभित हुए परमपद में जो, इष्टगुणों के ईश नमन।।6।। नव विध ब्रह्मचर्य के धारी नव विध नय स्वरूप जानें। जो दश विध धर्मस्थ रहें दशसंयम यत को नमन करूँ।।7।। एकादश अंग श्रुत पारंगत द्वादशांग में हुए कुशल। बारह तप धारें अरु तेरह क्रिया करें जो उन्हें नमन ।।8।। चौदह जीव समास-दयायुत चौदह परिग्रह रहित विशुद्ध। चौदह पूर्वो के पाठी चौदहमल वर्जित को वंदन ।।9 ।। एक दिवस से छह महिने तक का धारण करते उपवास। रवि-सन्मुख तप करें, कर्म चकचूर शूर-पद में मम वास।10।। बहुविध प्रतिमा योग धरें वीरासन पार्श्व निषद्या धार। नहीं थूकते, नहीं खुजाते, तन-निर्मम को नमन हजार ।।11।। ध्यान धरै अरु मौन रहें, नभ या तरुतल में करे निवास। लोंचे केश, न दूर करें रोगों को, उन्हें नमन शत बार ।।12 ।। तन मलीन, पर कर्ममलों की कल्मषता से रहित हुए। नख अरु केश बढ़ें, तप लक्ष्मी से भूषित को नमन करें।।13।। ज्ञान-नीर अभिषिक्त, शील गुण भूषित, तप सुगंध भरपूर। राग रहित, श्रुत सहित, मुक्तिपथ नायक मुनिवर को वन्दूँ।।14।। उग्र दीप्त अरु तप्त महातप घोर तपों को जो धारें। तप संयम अरु ऋद्धि सहित, सुर-पूजित को हम नमन करें।15।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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