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________________ प्रतिष्ठा नाम्नलि n अन्यत्व भावना मोह रूप मृगतृष्णा जल में, मिथ्या जल चमके । चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़े थकथक के ।। मृग जल नहिं पावै प्राण गमावे, भटक भटक मरता । — वस्तु पराई मानै अपनी भेद नहीं करता ।। १२ ।। " - तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतन तें बिछुड़े, ज्यों पय अरु पानी ।। रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेदज्ञान करना । जीलों पौरुष थके न तौलों, उद्यम सो चरना ।। १३ ।। अशुचि भावना । तू नित पोखे यह सूखे ज्यों, धोवे त्यों मैली । निश दिन करे उपाय देह का रोग दशा फैली। मात पिता रज वीरज मिलकर बनी देह तेरी । मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रकट व्याधि घेरी ।। १४ ।। काना पौण्डा पड़ा हाथ यह चूँसे तो रोवै । फले अनन्त जु धर्म ध्यान की, भूमि विषै बोवे ।। केसर चन्दन पुष्प सुगन्धित वस्तु देख सारी । देह परसतैं होय अपावन, निश दिन मल जारी ।। १५ ।। । 201 आस्रव भावना ज्यों सर जल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को । दविंत जीव प्रदेश गहै जब, पुद्गल भरमन को ।। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निश दिन चेतन को । पाप-पुण्य के दोनों करता, कारण बंधन को ।। १६ ।। पन मिथ्यात योग पन्द्रह द्वादश अविरत जानो । पंच रु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो ।। u
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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