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________________ 184 प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि राजा श्रेयांश राजा हर्षित भारी आहार दान की है तैयारी। निराहार चेतन राजा के अनुभव से है आनंद भारी ।। मुनिवर को पडगाह्यो...पडगाह्यो ।।२।। हे स्वामी तुम यहाँ विराजो उच्चासन पर विराजो। मन-वच-तन आहारशद्ध हैं भाव हमारे अतिविशद्ध हैं।। अपने चरण बढ़ाओ...बढ़ाओ ।।३।। दोष छयालिस मुनिवर टालें, अन्तराय बत्तीसों टालें। दोषरहित निज के अनुभव से चतुर्गति का भ्रमण निवारें।। तप को निमित्त बनायो...बनायो ।।४।। मुनिवर अब आहार करेंगे, निज चैतन्य विहार करेंगे। क्षायिक श्रेणी आरोहण कर मुक्तिपुरी का राज वरेंगे।। निज में निज को रमायो...रमायो ।।५।। --- अशरीरी सिद्ध भगवान अशरीरी-सिद्ध भगवान, आदर्श तुम्हीं मेरे। अविरुद्ध शुद्ध चिद्घन, उत्कर्ष तुम्हीं मेरे ।।टेक।। सम्यक्त्व सुदर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहन । सूक्ष्मत्व वीर्य गुणखान, निर्बाधित सुखवेदन ।। हे गुण अनन्त के धाम, वन्दन अगणित मेरे ।।१।। रागादि रहित निर्मल, जन्मादि रहित अविकल। कुल गोत्र रहित निष्कुल, मायादि रहित निश्छल ।। रहते निज में निश्चल, निष्कर्म साध्य मेरे ।।२।। रागादि रहित उपयोग, ज्ञायक प्रतिभासी हो। स्वाश्रित शाश्वतसुख भोग, शुद्धात्म-विलासी हो।। हे स्वयं सिद्ध भगवान, तुम साध्य बनो मेरे ।।३।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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