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________________ 170 n प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि जिनमार्ग कितना सुन्दर, कितना सुखमय, अहो सहज जिनपंथ है । धन्य धन्य स्वाधीन निराकुल, मार्ग परम निर्ग्रन्थ है ।। टेक ॥। श्री सर्वज्ञ प्रणेता जिसके, धर्म पिता अति उपकारी । तत्त्वों का शुभ मर्म बताती, माँ जिनवाणी हितकारी ।। अंगुली पकड़ सिखाते चलना, ज्ञानी गुरु निर्ग्रन्थ है ।। १ ।। देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा ही, समकित का सोपान है। महाभाग्य से अवसर आया, करो सही पहिचान है ।। पर की प्रीति महा दुःखदायी, कहा श्री भगवंत है ।।२।। निर्णय में उपयोग लगाना ही, पहला पुरुषार्थ है । तत्त्व विचार सहित प्राणी ही, समझ सके परमार्थ है ।। भेद - ज्ञान कर करो स्वानुभव, विलसे सौख्य बसंत है || ३ || ज्ञानाभ्यास करो मनमाहीं, विषय-कषायों को त्यागो । कोटि उपाय बनाय भव्य, संयम में ही नित चित पागो ।। ऐसे ही परमानन्द वेदें, देखो ज्ञानी संत हैं ॥४॥ रत्नत्रयमय अक्षय सम्पत्ति, जिनके प्रगटी सुखकारी । अहो शुभाशुभ कर्मोदय में, परिणति रहती अविकारी ।। उनकी चरण शरण में ही हो, दुखमय भव का अंत है ।।५।। क्षमाभाव हो दोषों के प्रति, क्षोभ नहीं किंचित् आवे । समता भाव आराधन से निज, चित्त नहीं डिगने पावे ।। उर में सदा विराजें अब तो, मंगलमय भगवंत हैं ||६|| हो निशंक, निरपेक्ष परिणति, आराधन में लगी रहे । क्लेशित हो नहीं पापोदय में, जिनभक्ति में पगी रहे ।। . पुण्योदय में अटक न जावे, दीखे साध्य महंत है । €11911
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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