SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 165 n तुम्हीं क्षेमकारी तुम्हीं योगिराजं । तुम्हीं शांत ईश्वर कियो आप काजं ।। तुम्हीं निर्भय निर्मलं वीतमोहं। तुम्हीं साम्य अमृत पियो वीतद्रोहं ।।३।। तुम्हीं भवउदधि परकर्ता जिनेशं । ___तुम्हीं मोहतम के विदारक दिनेशं ।। तुम्ही ज्ञाननीरं भरे क्षीरसागर। तुम्ही रत्न गुण के सुगम्भीर आकर ।।४।। तुम्हीं चन्द्रमा निजसुधा के प्रचारक। तुम्हीं योगियों के परम प्रेमधारक ।। तुम्हीं ध्यान गोचर सुतीर्थङ्करों के। तुम्हीं पूज्य स्वामी परम गणधरों के ।।५।। तुम्ही हो अनादी नहीं जन्म तेरा। तुम्हीं हो सदा सत् नहीं अंत तेरा ।। तम्हीं सर्वव्यापी परम बोध द्वारा। तुम्ही आत्मव्यापी चिदानंद धारा ।।६।। तुम्हीं हो अनित्यं स्वपरिणाम द्वारा। तुम्हीं हो अभेदं अमिट द्रव्य द्वारा।। तुम्ही भेदरूपं गुणानन्त द्वारा । तुम्हीं नास्तिरूपं परानन्त द्वारा ।।७।। तुम्हीं निर्विकारं अमूरत अखेदं । ___ तुम्हीं निष्कषायं तुम्हीं जीत वेदं ।। तुम्हीं हो चिदाकार साकार शुद्धं । तुम्ही हो गुणस्थान दूर प्रबुद्धं ।।८।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy