SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 120 n ( भुजंगप्रयात ) जिनेन्द्रोक्त धर्म दयाभाव रूपा, यही द्वैविधा संयमै है अनूपा । यही रत्नत्रय मय क्षमा आदि दशधा, प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि यही स्वानुभव पूजिये द्रव्य अठधा ।। ॐ ह्रीं श्री दशलक्षणोत्तमादित्रिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तथा मुनिग्रहस्थाचारभेदेनद्विविधं तथा द्वयरूपत्वेनैकरूपजिनधर्मायाऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २५०11 (दोहा) अर्हत्सिद्धाचार्य गुरु, साधु जिनागम धर्म । चैत्य चैत्यग्रह देव नव, यज मंडल कर सर्म ।। ॐ ह्रीं श्री सर्वयागमण्डलदेवताभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। सर्व विघ्न क्षय जाय शांति बाढे सही, भव्य पुष्टता लहें क्षोभ उपजे नहीं । पञ्चकल्याणक होंय सबहि मङ्गलकरा, जसे भवदधि पार लेय शिवधर शिरा ।। ( पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । ) अब विषयों में नाहिं रमेंगे... अब विषयों में नाहिं रमेंगे, चिदानन्द पान करेंगे । चहुँ गतियों में नाहिं भ्रमेंगे, निजानन्द धाम रहेंगे ।। मैं नहिं तन का तन नहिं मेरा, चेतन भाव में मेरा बसेरा । अब भेदविज्ञान करेंगे निजानन्द धाम रहेंगे ॥१॥ विषयों का रस विष का प्याला, चेतन का आनन्द निराला । अब ज्ञान में ज्ञान लखेंगे, निजानन्द पान करेंगे ।।२।। ज्ञान बसेज्ञायक में मेरा, ज्ञायक में ही ज्ञान बसेरा । अब क्षायिक श्रेणी चढेंगे, निजानन्द पान करेंगे || ३ ||
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy