SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 117 n अंगुलि आदि स्पर्शते, श्वास पवन छू जाय। । रोग सकल पीड़ा टले, जजूं साधु सुखदाय ।।३१।। ॐ ह्रीं श्री आमाँषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२९।। मुखते उपजे राल जिन, शमन रोग करतार । परम तपस्वी वैद्य शुभ, जजूं साधु अविकार ।।३२।। ॐ ह्रीं श्री श्वेलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३०।। तन पसेव सह रज उड़े, रोगीजन छू जाय । रोग सकल नाशे सही, जजूं साधु उमगाय ।।३३॥ ॐ ह्रीं श्री जलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयँ निर्वपामीति स्वाहा।।२३१।। नाक आँख कर्णादि मल, तन स्पर्श हो जाय। रोगी रोग शमन करें, जजूं साधु सुख पाय ।।३४॥ ॐ ह्रीं श्री मलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३२।। मल निपात पर्शी पवन, रजकण अंग लगाय। रोग सकल क्षण में हरे, जनूं साधु अघ जाय ।।३५॥ ॐ ह्रीं श्री विडौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३३।। तन नख केश मलादि बहु, अंग लगी पवनादि। हरै मृगी सूलादि बहु, जजूं साधु भववादि ।।३६।। ॐ ह्रीं श्री सौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३४।। विष मिश्रित आहार भी, जहं निर्विष हो जाय। चरण धरें भू अमृती, जजूं साधु दुःख जाय ।।३७।। ॐ ह्रीं श्री आस्याविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३५।। पड़त दृष्टि जिनकी जहाँ, सर्वहिं विष टल जाय। आत्म रमी शुचि संयमी, पूनँ ध्यान लगाय ।।३८।। ॐ ह्रीं श्री दृष्ट्यविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२३६।। | u
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy