SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 114 प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि चक्री सेना नर पशू, नाना शब्द करात। । पृथक्-पृथक् युगपत सुने, पूलूँ यति भय जात ।।७।। ॐ ह्रीं श्री संभिन्नश्रोत्र-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०५।। गिरि सुमेरु रविचन्द्र को, कर पद से छू जात। शक्ति महत् धारी यती, पूजूं पाप नशात ।।८।। ॐ ह्रीं श्री दूरस्पर्शनशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०६।। दूर क्षेत्र मिष्टान्न फल, स्वाद लेन बल धार । न वांछा रस लेन की, जजूं साधु गुणधार ।।९।। ॐ ह्रीं श्री दूरास्वादनशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०७।। घ्राणेन्द्रिय मर्याद से, अधिक क्षेत्र गन्धान । जान सकत जो साधु हैं, पूनँ ध्यान कृपान ।।१०।। ॐ ह्रीं श्री दूरघ्राणविषयग्राहकशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०८।। नेत्रेन्द्रिय का विषय बल, जो चक्री जानन्त । तातें अधिक सुजानते, जजूं साधु बलवन्त ।।११।। ॐ ह्रीं श्री दूरावलोकनशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२०९।। ___ कर्णेन्द्रिय नवयोजना, शब्द सुनत चक्रीश। तातें अधिक सुशक्तिधर, पूनँ चरण मुनीश ।।१२।। ॐ ह्रीं श्री दूरश्रवणशक्ति-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१०।। बिन अभ्यास मूहूर्त में, पढ जानत दश पूर्व । अर्थ भाव सब जानते, पूलूं यती अपूर्व ।।१३।। ॐ ह्रीं श्री दशपूर्वित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२११।। चौदह पूर्व मूहुर्त में, पढ़ जानत अविकार । भाव अर्थ समझें सभी, पूजूं साधु चितार ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्दशपूर्वित्व-ऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२१२॥.
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy