SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 112 n प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि करैं सु केशलोंच मुष्टि-मुष्टि धैर्य भावते, लखाय जन्म जन्तु का स्वकेश ना बढावते । ममत्व देह से नहीं न शस्त्र से नुचावते, जजूँ यती स्वतंत्रता विचार चिर रमावते ।। २५ । । ॐ ह्रीं श्री कृतकेशलोचननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।।१९५ ।। करैं न दन्तवन कभी तजा सिंगार अङ्ग का, लहें स्व खान-पान एकबार साध्य अङ्ग का । तथापि दंत कर्णिका महा न ज्योति त्यागती, जूँ यतीश शुद्धता अशुद्धता निवारती ।। २६ ।। ॐ ह्रीं श्री दन्तधोवनवर्जननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यो ऽर्घ्यं नि. स्वाहा । । १९६ ।। धरें न चाह भोग रोग के समान जानते, शरीर रक्ष काज एक बार भुक्ति ठानते । सकल दिवस सुध्यान शस्त्रपाठ में बितावते, जजूँ यती अलाभ अन्न लाभ सा निभावते ।।२७।। ॐ ह्रीं श्री एकभुक्तिनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१९७।। खड़े रहे सुलेय अन्न देहशक्ति देखते, न होय बल विहार तब मरण समाधि पेखते । करें सु आत्मध्यान भी खड़े-खड़े पहाड़ पर, जूँ यती विराजते निजानुभव चटान पर ।। २८ ।। ॐ ह्रीं श्री अस्थितभोजननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।। १९८ ।। (दोहा) अठविंशति गुण धर यती, शील कवच सरदार । रत्नत्रय भूषण धरें, टारें कर्म प्रहार ।। ॐ ह्रीं श्री अस्मिन् बिम्बप्रतिष्ठोत्सवे मुख्यपूजार्ह - अष्टमवलयोन्मुद्रितसाधुपरमेष्ठिभ्यस्तन्मूलगुणग्रामेभ्यश्च पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। u
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy