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________________ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भगवान आत्मा तो अनादि का है, कभी नाश को प्राप्त होने वाला नहीं है । अतः क्षणिक निर्मल पर्यायें भी अपनापन स्थापित करने योग्य नहीं है। उनके आश्रय से नई निर्मल पर्याय उत्पन्न नहीं होती। नई निर्मल पर्याय तो त्रिकाली ध्रुव निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होती है; अतः आश्रय करने की दृष्टि से, अपनापन स्थापित करने की दृष्टि से तो एकमात्र निज भगवान आत्मा ही उपादेय है । 76 यद्यपि निर्मल पर्याय प्रगट करने की अपेक्षा से उपादेय कही गई है, तथापि आश्रय करने की अपेक्षा से तो हेय ही है । देहादि परपदार्थ न उपादेय है, न हेय है, मात्र ज्ञेय है, जानने योग्य है; क्योंकि उनका ग्रहण -त्याग आत्मा के संभव ही नहीं है। किसी भी पर पदार्थ को ग्रहण करना या छोड़ना किसी भी द्रव्य को संभव नहीं है। देह को तो इस आत्मा ने आज तक ग्रहण ही नहीं किया है, मात्र उसे अपना जाना है, माना है। जब ग्रहण ही नहीं किया तो उसका त्याग भी कैसे हो सकता है; क्योंकि त्याग तो ग्रहण पूर्वक ही होता है । अत: देहादि पर पदार्थ तो मात्र ज्ञेय ही हैं। रागादि विकारी भाव हेय हैं और निर्मल पर्यायें प्रगट करने की अपेक्षा उपादेय हैं, पर आश्रय करने की अपेक्षा तो एकमात्र त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ही उपादेय है। उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की निर्मल पर्यायें प्रगट होती है। अतः वही परम उपादेय है। उसी की शोधखोज करने का नाम भेदविज्ञान है। यद्यपि इस भगवान आत्मा में अनन्त गुण हैं, असंख्य प्रदेश हैं; तथापि उनके लक्ष्य से विकल्प की ही उत्पत्ति होती है; अतः गुणभेद और प्रदेशभेद भी दृष्टि के विषय नहीं है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का विषय तो पर से, पर्याय से, गुणभेद और प्रदेशभेद से भी भिन्न निज भगवान आत्मा ही है, वही परम उपादेय है, आराध्य है और आराधना का सार भी वही है ।
SR No.009467
Book TitlePanchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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