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________________ पाँचवाँ दिन हमारे इन पंचकल्याणकों में मंच पर पिछले पर्दे के पीछे अप्रतिष्ठित जिनप्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं और अगले पर्दे के सामने अप्रतिष्ठित जनता । दोनों पर्दों के बीच कुछ प्रतिष्ठित लोग बैठे रहते हैं, जो निरन्तर अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने या प्रतिष्ठा बढ़ाने के चक्कर में रहते हैं । प्रतिष्ठा महोत्सव के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के व्यामोह में फँसे इन लोगों से मैं विनम्र अनुरोध करना चाहता हूँ कि यह तो जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा का महोत्सव है, इसे अपनी प्रतिष्ठा का साधन बनाना ठीक नहीं है। अपने हृदय में आत्मभावना प्रतिष्ठित करने का यह अमूल्य अवसर है; अत: इस अवसर पर तो अपने परिणामों को सरल व सहज बनाने का यत्न किया जाना चाहिए। 41 आज तक का समय राग-रंग का था, नाच-गाने का था, सो आपने खूब नाच-गा लिया, अब कल से वैराग्य का प्रसंग आ जाएगा। आपका यह नाचना-गाना सब बन्द हो जाएगा । गर्भकल्याणक और जन्मकल्याणक के दिन जनता की अपार प्रसन्नता के दिन होते हैं, राग-रंग के दिन होते हैं और उसके बाद के कल्याणक वैराग्य और वीतरागता के होते हैं। यह महोत्सव राग से वैराग्य की ओर ले जाने वाला महोत्सव है। जिन पंचकल्याणकों में साधु संतों की उपस्थिति रहती है, उनमें साधु संत गर्भकल्याणक और जन्मकल्याणक के उत्सवों में सम्मिलित नहीं होते। वे तो दीक्षाकल्याणक में ही आते हैं। वे कहते हैं कि इन राग-रंग के कल्याणकों में हमारा क्या काम ? हम तो वैराग्य के प्रसंग में ही आवेंगे। मुनिराजों की तो क्या कहें, लोकांतिक देव भी दीक्षाकल्याणक के पहले नहीं आते; क्योंकि वे ब्रह्मचारी होते हैं। ऊपर के अहमिन्द्र भी नहीं आते; क्योंकि उनके भी प्रविचार का पूर्णतः अभाव होता है। अहमिन्द्रों के देवांगनाएँ भी नहीं होतीं।
SR No.009467
Book TitlePanchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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