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________________ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव दिन के लिए तुम्हारे पास आना चाहता हूँ। मैं अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ कि मेरी बेटी ससुराल में सुखी तो है, उसका दाम्पत्य जीवन सफल तो है ? तुम्हें सुखी देखकर मैं चैन से काशीवास कर सकूँगा और मेरा मरण सुधर जायेगा। पिता का पत्र पाकर पुत्री चिंतित हो उठी; क्योंकि वह तो अपने पति से भी अलग रह रही थी, तलाक की पूरी-पूरी तैयारी थी। उसे चिन्ता इस बात की थी कि जब पिताजी को यह सब पता चलेगा तो उनका क्या हाल होगा, उनका मरण सुधरेगा कि बिगड़ेगा? । वह उस पत्र को लेकर पति के घर पहुंची तो पति ने देखते ही कहा - "अब आ गई अकल ठिकाने ?" "अकल ठिकाने नहीं आई, मात्र मैं ही आई हूँ।" कहते हुए उसने पिताजी का पत्र उसके सामने रख दिया। पत्र पढ़कर पति बोला - "बोलो, मैं इस मामले में तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ ?" "यही कि पिताजी की खातिर हम आठ दिन प्रेम से पति-पत्नी की तरह रह लें, अन्यथा उन्हें बहुत तकलीफ होगी।" "जब हममें परस्पर प्रेम रहा ही नहीं तो यह कैसे हो सकता है ?" "हो क्यों नहीं सकता, हमें प्रेम से रहना थोड़े ही है, बस प्रेम से रहने का अभिनय करना है।" "अच्छा तो ठीक है, तुम्हारे वृद्ध पिता की खातिर मैं इतना करूँगा।" परिणामस्वरूप वे दोनों पति-पत्नी पिताजी को लेने एक साथ स्टेशन पहुंचे। उन्हें लाकर आठ दिन साथ-साथ बड़े ही प्रेम से रहे। जाते समय ट्रेन पर विदा करने भी दोनों साथ-साथ गये। ___ रवाना होते समय पिता ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए अत्यन्त गद्गद भाव से कहा कि अब मेरा अन्तिम समय शान्ति से गुजरेगा, अब मैं शान्ति से मर सकूँगा; क्योंकि मैंने अपनी आँखों से तुम दोनों को अत्यन्त स्नेह से रहते देखा है, तुम आदर्श दम्पति हो। सदा सुखी रहो, सन्तुष्ट रहो, तुम्हारी
SR No.009467
Book TitlePanchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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