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________________ नियमसार तथा परमाणुद्रव्याणां पञ्चमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव अंतोपि स्वस्यात्मैव परमाणुः । अत: न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वाद् अनिलानलादिभिरविनश्वरत्वादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि । ७२ (अनुष्टुभ् ) अप्यात्मनि स्थितिं बुद्ध्वा पुद्गलस्य जडात्मनः । सिद्धास्ते किं न तिष्ठति स्वस्वरूपे चिदात्मनि ।। ४० ।। अच्युतपना कहा गया है; उसीप्रकार पंचम भाव की अपेक्षा परमाणु द्रव्य का परमस्वभाव होने से परमाणु स्वयं ही अपनी परिणति का आदि है, स्वयं ही अपनी परिणति का मध्य है और स्वयं ही अपना अन्त भी है । तात्पर्य यह है कि परमाणु आदि, मध्य और अन्त में स्वयं ही है; वह कभी भी अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता । जैसा ऊपर कहा है, वैसा होने से; इन्द्रियज्ञानगोचर न होने से और नष्ट न होने से जो अविभागी है; हे शिष्य तू उसे परमाणु जान ।' "" पवन, अग्नि आदि से इसप्रकार इस गाथा में यह कहा गया है कि पौद्गलिक परमाणु ही मूलत: पुद्गल द्रव्य है; क्योंकि स्कंध तो पुद्गल द्रव्य की समानजातीय द्रव्यपर्याय है। यद्यपि उक्त परमाणु रूपी पदार्थ है; अतः उसे इन्द्रियग्राह्य होना चाहिए था; क्योंकि इन्द्रियाँ रूपी पदार्थों को जानने में निमित्त होती हैं; तथापि परमाणु इन्द्रियग्राह्य नहीं है; क्योंकि वह अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है । इसप्रकार यह सुनिश्चित होता है कि छह द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य मूलतः इन्द्रियग्राह्य नहीं है; सभी पदार्थ अतीन्द्रिय ज्ञान के ही विषय हैं। ध्यान रखने की बात यह है कि अकेला केवलज्ञान ही अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं है, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान भी अतीन्द्रिय हैं; क्योंकि वे अपने-अपने विषय को इन्द्रियों के सहयोग के बिना ही जानते हैं। परमाणु भी विशेष प्रकार के सम्यक् अवधिज्ञान का विषय है। एक बात यह भी ध्यान रखने योग्य है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय छहों द्रव्य हैं। तथा परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थ अनुमानादि रूप मतिज्ञान और आगमरूप श्रुतज्ञान से भी जाने जाते हैं। ध्यान रहे अकेले प्रत्यक्ष जानने को ही जानना नहीं कहते, परोक्षज्ञान भी ज्ञान है और वह सम्यग्ज्ञानरूप भी होता है । हाँ, यह बात अवश्य है कि परमाणु को मतिश्रुतज्ञान प्रत्यक्षरूप से नहीं जान सकते; क्योंकि वे ज्ञान परोक्षज्ञान ही हैं ।। २६ ।। अन्त में टीकाकार एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) जब जड़ पुद्गल स्वयं में सदा रहे जयवंत । सिद्धजीव चैतन्य में क्यों न रहे जयवंत ||४०||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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