SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजीव अधिकार यो हेतु: स कारणपरमाणुः । स एव जघन्यपरमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः । स्निग्धरूक्षगुणानामनन्तत्वस्योपरि द्वाभ्याम् चतुर्भिः समबन्ध: त्रिभि: पंचभिर्विषमबन्ध: । अयमुत्कृष्टपरमाणुः । गलतां पुद्गलद्रव्याणाम् अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणुः । अणवश्चतुर्भेदा: कार्यकारणजघन्योत्कृष्टभेदैः तस्य परमाणुद्रव्यस्य स्वरूपस्थितत्वात् विभावाभावात् परमस्वभाव इति । ६९ वायु ह्न ये चार धातुयें हैं और उनका जो हेतु है, वह कारणपरमाणु है । वही परमाणु, एक गुण स्निग्धता या रूक्षता होने से, सम या विषम बंध के लिए अयोग्य जघन्य परमाणु है ह्र ऐसा अर्थ है। एक गुण स्निग्धता या रूक्षता के ऊपर, दो गुणवाले का और चार गुणवाले का समबंध होता है तथा तीन गुणवाले का और पाँच गुणवाले का विषम बंध होता है यह उत्कृष्ट परमाणु है । गलते अर्थात् पृथक् होते हुए पुद्गलद्रव्यों की अन्तिम दशा में स्थित वह कार्यपरमाणु है । तात्पर्य यह है कि स्कंध के खण्डित होते-होते जो छोटे से छोटा अविभागी भाग रहता है, वह कार्यपरमाणु है । इसप्रकार परमाणुओं के चार प्रकार हैं ह्न १. कार्यपरमाणु, २. कारणपरमाणु, ३. जघन्यपरमाणु और ४. उत्कृष्टपरमाणु । वह परमाणु द्रव्य स्वरूप में स्थित होने से उसमें विभाव का अभाव है; इसलिए वह परमस्वभाव है ।" ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ पुद्गल के पिण्ड (स्कंध ) होने के कारणरूप परमाणु को कारणपरमाणु और पिण्ड (स्कंध) से छूटे हुए परमाणु को कार्यपरमाणु कहा है । तात्पर्य यह है कि चूंकि परमाणुओं से स्कंध बनता है, इसकारण परमाणु को कारणपरमाणु कहते हैं; क्योंकि वह स्कंध बनने का कारण है। जब किसी स्कंध का बिखराव अन्तिम बिन्दु तक होता है अर्थात् एक परमाणु बिलकुल अकेला रह जाता है; तब उस परमाणु को कार्य - परमाणु कहते हैं। कारणपरमाणु, जघन्यपरमाणु, उत्कृष्टपरमाणु और कार्यपरमाणु ह्न इसप्रकार परमाणुओं के चार प्रकार भी कहे गये हैं । ' है। १. पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ह्न इन चार धातुओं का हेतु कारणपरमाणु २. एक गुण स्निग्धता या एक गुण रूक्षतावाला बंध के अयोग्य परमाणु जघन्य परमाणु ३. एक गुण से अधिक स्निग्धता या रूक्षतावाला जो परमाणु बंध के योग्य है, वह उत्कृष्ट परमाणु है। ४. खण्डित होते-होते जो स्कंध का छोटे से छोटा अविभागी अंश रहता है; वह कार्यपरमाणु है । महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय में उक्त संदर्भ में आठ सूत्र आते हैं; उनमें भी
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy