SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजीव अधिकार तथा हि ह्न (मालिनी) इति विविधविकल्पे पुद्गले दृश्यमाने न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन् । कुरु रतिमतुलां त्वं चिच्चमत्कारमात्रे भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३८।। स्थूल-स्थूल, इसके बाद स्थूल, इसके बाद स्थूल-सूक्ष्म, फिर सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म तू ये छह प्रकार के स्कंध जानने चाहिए।॥८॥ ___ इसके बाद तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः ह्न तथा अमृतचंद्राचार्य ने भी कहा है' ह्न लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत) अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में। बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ।। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है।।९।। इस अनादिकालीन महा-अविवेक के नाटक में वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; क्योंकि यह जीव तो रागादिरूप पुद्गल विकारों से विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है। उक्त छन्द में यह कहा गया है कि अनादिकालीन अज्ञानी को तो एकमात्र वर्णादिवाले पुद्गल द्रव्य ही विभिन्न रूपों में दिखाई देते हैं। वर्णादि और रागादि भावों से भिन्न भगवान आत्मा जो शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है, ज्ञानानन्दस्वभावी है; वह तो ज्ञानी धर्मात्माओं को ही दिखाई देता है। अनन्त सुख-शान्ति की प्राप्ति भी ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है। अत: आराध्य तो एकमात्र निज भगवान आत्मा ही है। त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में अपनापन होना, उसे ही निजरूप जानना और उसमें ही जम जाना, रम जाना, समा जाना ही आत्मा की आराधना है। उक्तभगवान आत्मा आराध्य है और आराधनासहित आत्मा आराधक है। इसप्रकार यह भगवान आत्मा ही आराध्य, आराधक और आराधना है। सबकुछ एक इस आत्मा में ही समाहित है।।९।। इसके बाद मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छंद स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy