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________________ ५४ नियमसार (मालिनी) अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको य: परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् । सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ।।३०।। ___(अनुष्टुभ् ) भावकर्मनिरोधेन द्रव्यकर्मनिरोधनम् । द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम् ।।३१।। इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज छह छन्द लिखते हैं। उक्त छह छन्दों में प्रथम छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) परमगुरु की कृपा से मोही रागी जीव । समयसार को जानकर शिव श्री लहे सदीव ||३०|| सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेषवाला कोई पुरुष परमगुरु के चरणकमल की सेवा के प्रसाद से निर्विकल्प सहज समयसार को जानता है; वह परमश्री (मुक्ति) रूपी सुन्दरी का प्रिय कान्त (पति) होता है। उक्त कलश में यह कहा गया है कि यदि मोही-रागी-द्वेषी जीव भी परमगुरु के सदुपदेश से निज भगवान आत्मा के स्वरूप को जानकर निर्विकल्प होता है तो वह भी मोह-राग-द्वेष का अभाव करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। ___परमगुरु अरहंत भगवान को कहते हैं। उनके चरणों की सेवा का एक अर्थ तो उनकी भक्ति हो सकता है; परन्तु शुभरागरूप भक्ति से तो पुण्य का बंध होता है, मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। अत: उनसे तत्त्व सुनकर, उनकी लिखित वाणी-जिनवाणी को पढ़कर, देशनालब्धिपूर्वक करणलब्धिरूप आचरण करना ही उनके चरणों की सेवा का सही अर्थ है। तात्पर्य यह है कि जब मोही-रागी-द्वेषी जीव भी परमगुरु से सीधे सुनकर या उनके द्वारा लिखित शास्त्रों को पढ़कर तत्त्व को समझकर, समयसाररूप शुद्धात्मा को जानकर, उसका ध्यान कर मुक्ति प्राप्त कर लेता है तो फिर हम सभी में से किसी को भी निराश होने की क्या आवश्यकता है? इसलिए मोक्ष की इच्छा रखनेवालों को परमगुरुसे आत्मा का स्वरूप सुनकर, उनकी वाणी के अनुसार लिखे गये शास्त्रों को पढ़कर, उस वाणी के मर्म को जाननेवाले ज्ञानी धर्मात्माओं से उस वाणी का मर्म समझ कर, शुद्धात्मा का स्वरूप जानकर, उसमें ही निर्विकल्प होकर समा जाना चाहिए। मुक्तिरूपी सुन्दरी को प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है ||३०||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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