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________________ नियमसार (मालिनी) अपि च बहुविभावे सत्ययं शुद्धदृष्टिः सहजपरमतत्त्वाभ्यासनिष्णातबुद्धिः। सपदि समयसारान्नान्यदस्तीति मत्त्वा __स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२७।। माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा। सत्तविहा णेरइया णादव्वा पुढविभेदेण ।।१६।। चउदह भेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा। एदेसिं वित्थारं लोयविभागेषु णादव्वं ।।१७।। इस गाथा की टीका के अन्त में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र । (रोला) बहुविभाव होने पर भी हैं शुद्धदृष्टि जो। परमतत्त्व के अभ्यासी निष्णात पुरुष वे|| 'समयसार से अन्य नहीं है कुछ भी' ह ऐसा । मान परमश्री मुक्तिवधू के वल्लभ होते||२७|| सहजपरमतत्त्व के अभ्यास में प्रवीण शुद्धदृष्टिवाला पुरुष, वर्तमान-पर्याय में अनेक विभाव होने पर भी समयसार से अन्य कुछ भी नहीं है'ह्न ऐसा मानकर शीघ्र ही परमश्रीरूपी मुक्तिसुन्दरी का वल्लभ होता है, मुक्तिसुन्दरी को प्राप्त करता है। उक्त छन्द में एकमात्र बात यही कही गई है कि समयसार अर्थात् पर और पर्यायों से भिन्न एवं कारणशुद्धपर्याय से अभिन्न निज भगवान आत्मा ही सबकुछ है ह्न ऐसा माननेवाले को शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति की प्राप्ति होती है।।२७।। __जिन मनुष्यादि व्यंजनपर्यायों की चर्चा विगत गाथा में की गई है, अब इन गाथाओं में उन्हीं पर्यायों के भेदों के प्रभेद गिनाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) कर्मभूमिज भोगभूमिज मानवों के भेद हैं। अर सात नरकों की अपेक्षा सप्तविध नारक कहे||१६|| चतुर्दश तिर्यंच एवं देव चार प्रकार के। इन सभी का विस्तार जानो अरे लोक विभागसे||१७||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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