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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४७९ (मालिनी) सुकविजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्तं ललितपदनिकायैर्निमितं शास्त्रमेतत् । निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०८।। पूर्वापर दोष से रहित जिनेन्द्रदेव के उपदेशानुसार बनाया है। अत: यह पूर्णत: निर्दोष शास्त्र है। ___इस गाथा की टीका में टीकाकार किंच कहकर अनेक विशेषण लगाकर कहते हैं कि इस नियमसार नामक शास्त्र के तात्पर्य को दो प्रकार से जाना जा सकता है ह्न सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य। सूत्रतात्पर्य तो प्रत्येक गाथा में बता दिया गया है और शास्त्रतात्पर्य शाश्वत सुख की प्राप्ति है। इस अंश की विशेषता यह है कि इसके पूर्वार्ध में तो सभी अधिकारों में प्रतिपादित वस्तु का संक्षेप में उल्लेख किया गया है और उत्तरार्ध में नियमसार शास्त्र की महिमा के साथ इसके अध्ययन का फल भी बता दिया गया है। हम सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों का कर्तव्य है कि इसका स्वाध्याय अत्यन्त भक्तिभाव से गहराई से अवश्य करें ।।१८७।। इसप्रकार इस नियमसार शास्त्र की तात्पर्यवृत्ति टीका की पूर्णाहुति करते हुए टीकाकार मुनिराज चार छन्द लिखते हैं; जिसमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) सुकविजन पंकजविकासी रवि मुनिवर देव ने। ललित सूत्रों में रचा इस परमपावन शास्त्र को ।। निज हृदय में धारण करेजो विशुद्ध आतमकांक्षी। वह परमश्री वल्लभा का अती वल्लभ लोक में ||३०८।। सुकविजनरूपी कमलों को आनन्द देने, विकसित करनेवाले सूर्य श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव के द्वारा ललित पद समूहों में रचे हुए इस उत्तम शास्त्र को जो विशुद्ध आत्मा का आकांक्षी जीव निज मन में धारण करता है; वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है। इस छन्द में भी यही कहा गया है कि इस परमपावन शास्त्र में प्रतिपादित मर्म को अपने चित्त में धारण करनेवाले आत्मार्थियों को मुक्ति की प्राप्ति होती है ।।३०८।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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