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________________ ४६६ नियमसार णवि कम्मंणोकम्मंणवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि। णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८१।। नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे । नापि धर्मशुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१८१।। सकलकर्मविनिर्मुक्तशुभाशुभशुद्धध्यानध्येयविकल्पविनिर्मुक्तपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टकं, त्रिकालनिरुपराधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचकं च, अमन (रोला) अनुपम गुण से शोभित निर्विकल्प आतम में। अक्षविषमवर्तन तो किंचितमात्र नहीं है। भवकारक गुणमोह आदि भी जिसमें न हों। उसमें निजगुणरूप एक निर्वाण सदा है।।३००|| अनुपम गुणों से अलंकृत और निर्विकल्प ब्रह्म में इन्द्रियों का अति विविध और विषम वर्तन किंचित् मात्र भी नहीं है तथा संसार के मूलभूत अन्य मोह-विस्मयादि सांसारिक गुण समूह नहीं है; उस ब्रह्म में सदा निज सुखमय एक निर्वाण शोभायमान है। इस छन्द में यह कहा गया है कि इन्द्रियों के विविध प्रकार के विषम वर्तन से रहित, अनुपम गुणों से अलंकृत, संसार के मूल (जड़) मोह-राग-द्वेषादि सांसारिक गुणों (दोषों) से रहित निज निर्विकल्पक आत्मा में निर्वाण (मुक्ति) सदा विद्यमान ही है।।३००।। विगत दो गाथाओं में परमपारिणामिकभावरूप परमतत्त्व ही निर्वाण है ह्र यह कहा गया है। इस गाथा में भी उसी बात को आगे बढ़ा रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) कर्म अर नोकर्म चिन्ता आर्त रौद्र नहीं जहाँ। ध्यान धरम शकल नहीं निर्वाण जानो है वहाँ।।१८१|| जहाँ कर्म और नोकर्म नहीं हैं, चिन्ता नहीं है, आर्त और रौद्र ध्यान नहीं है तथा धर्म और शुक्लध्यान भी नहीं है; वहाँ निर्वाण है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न 'यह सर्व कर्मों से विमक्त तथा शभ, अशभ और शद्धध्यान तथा ध्येय के विकल्पों से मुक्त परमतत्त्व के स्वरूप का व्याख्यान है। जहाँ (जिस परमतत्त्व में) सदा निरंजन होने से आठ द्रव्यकर्म नहीं हैं; त्रिकाल निरुपाधि स्वभाववाला होने से पाँच प्रकार के नोकर्म
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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