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________________ ४५८ नियमसार त्वादक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्तगतिहेतुभूतपुण्यपापकर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधबन्धच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्तत्वादच्छेद्यमिति । ( मालिनी ) अविचलित-मखंड - ज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठं निखिल - दुरित-दुर्गव्रातदावाग्निरूपम् । भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतं त्वं सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात् ।। २९६।। अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं । पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं । । १७८ ।। अव्याबाधमतीन्द्रियमनुपमं पुण्यपापनिर्मुक्तम् । पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालंबम् । । १७८ । । पुण्य-पाप कर्मरूप द्वन्द का अभाव होने से अविनाशी है; तथा वध, बन्धन और छेदन के योग्य मूर्तिकपने से रहित होने के कारण अच्छेद्य है । ' उक्त गाथा में त्रिकाली ध्रुव कारणपरमतत्त्व के, कारणपरमात्मा के जो भी विशेषण दिये गये हैं; टीकाकार ने उन सभी को कारण सहित परिभाषित किया है। वे विशेषण टीका में पूरी तरह स्पष्ट हो गये हैं; अतः कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है । । १७७।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( वीर ) राग-द्वेष के द्वन्द्वों में जो नहीं रहे अघनाशक है। अखिल पापवन के समूह को दावानल सम दाहक है । अविचल और अखण्ड ज्ञानमय दिव्य सुखामृत धारक है। अरे भजो निज आतम को जो विमलबोध का दायक है ।। २९६॥ अविचल, अखण्डज्ञानरूप, अद्वन्द्वनिष्ठ और सम्पूर्ण पाप के दुस्तर समूह को जलाने के लिए दावानल के समान स्वयं से उत्पन्न दिव्यसुख रूपी अमृतरूप भजने योग्य आत्मतत्त्व को भजो, आत्मतत्त्व का भजन करो; क्योंकि उससे ही तुम्हें सम्पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होगा । उक्त छंद में अपने आत्मतत्त्व को भजने की प्रेरणा दी गई है ।। २९६ ।। जिस कारणपरमतत्त्व की चर्चा विगत गाथा में की गई थी, इस गाथा में भी उसी परमतत्त्व की बात कही जा रही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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