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________________ ४४८ नियमसार तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे ह्न ण वि परिणमदिण गेण्हदि उप्पजदिणे जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।।८४।।' तथा हि ह्न (मंदाक्रांता) जानन् सर्वं भुवनभवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थं पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः। मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति नित्यं ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी ।।२८८।। ( हरिगीत ) सर्वार्थ जाने जीव पर उनरूपन परिणमित हो। बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो||८४|| केवलज्ञानी आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न भी नहीं होता; इसलिए उसे अबंधक कहा है। इस गाथा में यही बात कही गई है कि सर्वज्ञ भगवान सबको जानते हुए भी जानने में आते हुए पदार्थोंरूप परिणमित नहीं होते, उन्हें ग्रहण नहीं करते और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न नहीं होते; इसलिए उन्हें अनन्त संसार बढानेवाला बंध भी नहीं होता ||८४|| इसके बाद टीकाकार मनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथाहि लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र । (हरिगीत ) सहज महिमावंत जिनवर लोक रूपी भवन में। थित सर्व अर्थों को अरे रे देखते अर जानते।। निर्मोहता से सभी को नित ग्रहण करते हैं नहीं। कलिमल रहित सद्ज्ञान से वे लोक के साक्षी रहे ।।२८८|| सहज महिमावंत देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव लोकरूपी भवन में स्थित सभी पदार्थों को जानते-देखते हए भी, मोह के अभाव के कारण किसी भी पदार्थ को कभी भी ग्रहण नहीं करते; परन्तु ज्ञानज्योति द्वारा मलरूप क्लेश के नाशक वे जिनेन्द्रदेव सम्पूर्ण लोक के एकमात्र साक्षी हैं, केवल ज्ञाता-दृष्टा हैं। १. प्रवचनसार, गाथा ५२
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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