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________________ ४४४ तथा चोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभि: ह्र तथा हि ह्र ( अनुष्टुभ् ) ज्ञानस्वभाव: स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युति: । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।। ८२ ।। १ ( मंदाक्रांता ) ज्ञानं तावद्भवति सुतरां शुद्धजीवस्वरूपं स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम् । तच्च ज्ञानं स्फुटितसहजावस्थयात्मानमारात् नो जानाति स्फुटमविचलाद्भिन्नमात्मस्वरूपात् ।।२८६।। नियमसार इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा गुणभद्रस्वामी द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है (दोहा) ज्ञानस्वभावी आतमा स्वभावप्राप्ति है इष्ट | अतः मुमुक्षु जीव को ज्ञानभावना इष्ट || ८२ ॥ आत्मा ज्ञानस्वभावी है । स्वभाव की प्राप्ति अच्युति (अविनाशी दशा ) है । अत: अच्युति को चाहनेवाले जीव को ज्ञान की भावना भानी चाहिए। उक्त छन्द का भाव यह है कि ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा को स्वभाव की प्राप्ति, अच्युति अर्थात् अविनाशी दशा है। उक्त अविनाशी दशा की प्राप्ति करने की भावना रखनेवालों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे सदा स्वभाव की प्राप्ति की भावना रखें ।। ८२ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( रोला ) शुद्धजीव तो एकमात्र है ज्ञानस्वरूपी । अतः आतमा निश्चित जाने निज आतम को ॥ यदि साधक न जाने स्वातम को प्रत्यक्ष तो । ज्ञान सिद्ध हो भिन्न निजातम से हे भगवन् ॥ २८६ ॥ ज्ञान तो शुद्धजीव का स्वरूप ही है। अत: हमारा आत्मा भी अभी साधक दशा में एक १. आत्मानुशासन, छन्द १७४
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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