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________________ ४४२ नियमसार णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा। अप्पाणंण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ।।१७०।। ज्ञानं जीवस्वरूपं तस्माज्जानात्यात्मकं आत्मा। आत्मानं नापि जानात्यात्मनो भवति व्यतिरिक्तम् ।।१७०।। अत्र ज्ञानस्वरूपो जीव इति वितर्केणोक्तः । इह हि ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाद्वैतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्तिसुन्दरीनाथं बहिर्व्यावृत्तकौतूहलं निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववादः। अस्य विपरीतो वितर्कःसखलु विभाववादः प्राथमिकशिष्याभिप्रायः । कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं 'तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञदेव निश्चयनय से सम्पूर्ण लोक को जानते हैं और वे पुण्यपाप से रहित अनघ, निजसुख में लीन एक अपनी आत्मा को नहीं जानते' ह ऐसा कोई मुनिराज व्यवहारमार्ग से कहे तो उसमें उनका कोई दोष नहीं है। उक्त छन्द में उसी बात को दुहराया गया है; जो गाथा और उसकी टीका में कही गई है। अत: उक्त छन्द में प्रतिपादित परम तत्त्व के संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है ।।२८५।। विगत गाथा में केवली भगवान के संदर्भ में व्यवहारनय के कथन को प्रस्तुत किया गया था। अब इस गाथा में ‘जीव ज्ञानस्वरूप है' यह सिद्ध करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) ज्ञान जीवस्वरूप इससे जानता है जीव को। जीव से हो भिन्न वह यदि नहीं जाने जीव को ।।१७०|| जीव का स्वरूप ज्ञान है, इसलिए आत्मा आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को नहीं जाने तो वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “इस गाथा में ‘जीव ज्ञानस्वरूप है' ह्न इस बात को तर्क की कसौटी पर कसकर सिद्ध किया गया है। प्रथम तो ज्ञान आत्मा का स्वरूप है; इसकारण जो अखण्ड-अद्वैत स्वभाव में लीन है, निरतिशय परम भावना से सनाथ है, मुक्ति सुन्दरी का नाथ है और बाह्य में जिसने कौतूहल का अभाव किया है; ऐसे निज परमात्मा को कोई भव्य आत्मा जानता है । वस्तुत: यह स्वभाववाद है। इसके विपरीत विचार (वितर्क) विभाववाद है, यह प्राथमिक शिष्य का अभिप्राय है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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