SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३४ नियमसार अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जइ कोइ भइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।। १६६ ।। आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोकौ न केवली भगवान् । यदि कोपि भणत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ।। १६६ । । शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम् । व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविषयद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिरपेक्षतया नि:शेषतोऽन्तर्मुखत्वात् निश्चय से स्वप्रकाशक ज्ञान आत्मा है। जिसने बाह्य आलम्बन का नाश किया है ह्र ऐसा स्वप्रकाशक दर्शन भी आत्मा है । निजरस के विस्तार पूर्ण होने के कारण जो पवित्र है तथा पुरातन है; ऐसा आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमा में निश्चितरूप से वास करता है । इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि निश्चयनय से स्वप्रकाशक (स्वयं को जाननेवाला) ज्ञान और स्वप्रकाशक (स्वयं को देखनेवाला) दर्शन ही आत्मा हैं । निश्चयनय से स्व को देखने-जाननेवाला यह ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा पुरातन है, पवित्र है और अपने निर्विकल्पक महिमा में सदा मग्न है ।। २८१ । विगत गाथा में निश्चयनय से ज्ञान, दर्शन और आत्मा का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब बहुचर्चित आगामी गाथा यह बताते हैं कि केवली भगवान आत्मा को ही देखते हैं, लोकालोक को नहीं; ह्न यदि कोई (निश्चयनय से ) ऐसा कहता है तो इसमें क्या दोष है। तात्पर्य यह है कि उसमें कोई दोष नहीं है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) देखे - जाने स्वयं को पर को नहीं जिनकेवली । यदि कहे कोई इसतरह उसमें कहो है दोष क्या ? || १६६ || केवली भगवान आत्मस्वरूप को देखते हैं, लोकालोक को नहीं; ह्न यदि कोई (निश्चयनय) ऐसा कहता है तो उसमें क्या दोष है ? इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्र “यह शुद्धनिश्चयनय 'अपेक्षा से पर को देखने का खण्डन है । यद्यपि यह आत्मा व्यवहारनय से एक समय में तीन काल संबंधी पुद्गलादि द्रव्यों के गुण, पर्यायों को जानने में समर्थ केवलज्ञानमात्र स्वरूप महिमा का धारक है; तथापि केवलदर्शनरूप तीसरी आँखवाला होने पर भी, परमनिरपेक्षपने के कारण पूर्णत: अन्तर्मुख होने से केवल स्वरूप
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy