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________________ जीव अधिकार ___ अशुद्धदृष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम् । मतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन यथा मूर्तं वस्तु जानाति तथा चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन मूर्तं वस्तु पश्यति च । यथा श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन श्रुतद्वारेण द्रव्यश्रुतनिगदितमूर्तामूर्तसमस्तं वस्तुजातं परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रद्वारेण तत्तद्योग्यविषयान् पश्यति च । यथा अवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपदगलपर्यंतं मूर्तद्रव्यं जानाति तथा अवधिदर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्तपदार्थं पश्यंति च। __अनोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते । परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्यायः । अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारण: अर्थपर्यायः अवाङ्मनसगोचरः अतिसूक्ष्मः गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) चक्षु अचक्षु अवधि त्रय दर्शन विभाव कहे गये। पर्याय स्वपरापेक्ष अर निरपेक्ष द्विविध प्रकार है।।१४|| चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ह्वये दर्शन विभावदर्शन कहे गये हैं। स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष के भेद से पर्यायें दो प्रकार की हैं। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "यह अशुद्ध दर्शन तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की सूचना है। जिसप्रकार यह जीव मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मूर्त वस्तुओं को जानता है; उसीप्रकार चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से मूर्त वस्तुओं को देखता है। __जिसप्रकार यह जीव श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुत द्वारा द्रव्यश्रुत में कहे गये मूर्त-अमूर्त समस्त वस्तुओं को परोक्षरूप से जानता है; उसीप्रकार अचक्षु दर्शनावरण के क्षयोपशम से स्पर्शन, रसना, घ्राण और कर्ण द्वारा उस-उसके योग्य विषयों को देखता है। जिसप्रकार यह जीव अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से शुद्ध पुद्गल (परमाणु) पर्यन्त मूर्त द्रव्य को जानता है; उसीप्रकार अवधि दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से समस्त मूर्त पदार्थों को देखता है। इसप्रकार उपयोग का व्याख्यान करने के उपरान्त अब यहाँ पर्याय का स्वरूप कहा जाता है। जो सभी ओर से भेद को प्राप्त हो, उसे पर्याय कहते हैं। उसमें सभी छह द्रव्यों में सामान्यरूप से पाई जानेवाली स्वभावपर्याय अर्थपर्याय है। वह अर्थपर्याय वाणी और मन के अगोचर अतिसूक्ष्म है, आगम प्रमाण से स्वीकार करने योग्य है और छहप्रकार की हानि-वृद्धि सहित है। यह षट्प्रकार की वृद्धि इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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