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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४२७ अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६३।। आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम्।। न भवति परद्रव्यगतं दर्शन मिति वर्णितं तस्मात् ।।१६३।। उक्त छन्द में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान-दर्शन और आत्मा में कथंचित् भिन्नता है और कथंचित् अभिन्नता है। इसप्रकार वे प्रमाण से भिन्नाभिन्न हैं।।७८|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज ‘तथाहिं' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) यह आतमा न ज्ञान है दर्शन नहीं है आतमा । रे स्वपर जाननहार दर्शनज्ञानमय है आतमा ।। इस अघविनाशक आतमा अरज्ञानदर्शन में सदा । भेद है नामादि से परमार्थ से अन्तर नहीं।।२७८|| आत्मा ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार आत्मा दर्शन भी नहीं है। ज्ञान-दर्शन युक्त आत्मा स्व-परविषय को अवश्य जानता है और देखता है। अघ अर्थात् पुण्य-पाप समूह के नाशक आत्मा में और ज्ञान-दर्शन में संज्ञा (नाम) भेद से भेद उत्पन्न होता है; परमार्थ से अग्नि और उष्णता की भाँति आत्मा और ज्ञान-दर्शन में वास्तविक भेद नहीं है। इस छन्द में यही कहा गया है कि यद्यपि दर्शन, ज्ञान और आत्मा में नामादि की अपेक्षा व्यवहार से भेद है; तथापि निश्चय से विचार करें तो उनमें अग्नि और उष्णता की भाँति कोई भेद नहीं है।।२७८|| इस गाथा में भी विगत गाथा में प्रतिपादित विषय को ही आगे बढ़ाया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) पर का प्रकाशक आत्म तो दृग भिन्न होगा आत्म से । पर को न देखे दर्श ह ऐसा कहा तुमने पूर्व में ||१६३|| यदि आत्मा परप्रकाशक हो तो आत्मा से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा; क्योंकि दर्शन काशक नहीं है ह तेरी मान्यता संबंधी ऐसा वर्णन पूर्वसूत्र में किया गया है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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