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________________ ४२० ( मंदाक्रांता ) एको देवः स जयति जिन: केवलज्ञानभानुः कामं कान्तिं वदनकमले संततोत्येव कांचित् । समरसमयानंगसौख्यप्रदायाः मुक्तेस्तस्या: को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियाया: ।। २७५ ।। यहाँ एक साथ देखने-जानने के स्वभाव के उल्लेखपूर्वक सर्वज्ञ भगवान की महिमा के गीत गाये गये हैं। उन्हें तीन लोक के नाथ, धर्मतीर्थ के नेता और अज्ञानान्धकार के नाशक बताया गया है || २७३॥ दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) सद्बोधरूपी नाव से ज्यों भवोदधि को पारकर । शीघ्रता से शिवपुरी में आप पहुँचे नाथवर ॥ मैं आ रहा हूँ उसी पथ से मुक्त होने के लिए। अन्य कोई शरण जग में दिखाई देता नहीं || २७४ || नियमसार हे जिननाथ सम्यग्ज्ञानरूपी नाव में सवार होकर आप भवसमुद्र को पारकर शीघ्रता से मुक्तिपुरी में पहुँच गये हैं । अब मैं भी आपके इसी मार्ग से उक्त मुक्तिपुरी में आता हूँ; क्योंकि इस लोक में उत्तम पुरुषों को उक्त मार्ग के अतिरिक्त और कौन शरण है ? तात्पर्य यह है कि मुक्ति प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। इस छन्द में जिननाथ की स्तुति करते हुए कहा गया है कि जिस मार्ग पर चलकर आपने शाश्वत शिवपुरी प्राप्त की है; अब मैं भी उसी मार्ग से शिवपुरी में आ रहा हूँ; क्योंकि इसके अलावा कोई मार्ग ही नहीं है । उक्त छन्द में लेखक का आत्मविश्वास झलकता है। उन्हें पक्का भरोसा है कि जिनेन्द्र भगवान जिस मार्ग पर चलकर मुक्त हुए हैं; वे भी दृढ़तापूर्वक उसी मार्ग पर चल रहे हैं ।। २७४ ।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) आप केवल जिन इस जगत में जयवंत हैं । समरसमयी निर्देह सुखदा शिवप्रिया के कंत हैं । मेरे शिवप्रिया के मुखकमल पर कांति फैलाते सदा । सुख नहीं दे निजप्रिया को है कौन ऐसा जगत में || २७५ || केवलज्ञानरूपी प्रकाश को धारण करनेवाले एक जिनदेव ही जयवन्त हैं । वे जिनदेव
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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