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________________ ४१८ नियमसार तथा चोक्तं प्रवचनसारे ह्न णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णट्ठमणिटुं सव्वं इ8 पुण जं तु तं लद्धं ।।७५।। अन्यच्च ह्न दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवओगा। जुगवं जह्मा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ।।७६।। स्व-पर पदार्थों को एक साथ देखते-जानते हैं; पर क्षायोपशमिकज्ञानवाले जीव जब किसी पदार्थ को देखते-जानते हैं तो देखना (दर्शन) पहले होता है, उसके बाद जानना (ज्ञान) होता है। तात्पर्य यह है कि क्षायोपशमिकज्ञानवालों के देखना-जानना क्रमश: होता है और क्षायिकज्ञानवालों में देखना-जानना एक साथ होता है।।१६०|| इसके बाद ‘तथा चोक्तं प्रवचनसारे ह्न तथा प्रवचनसार में भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है। हैं नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं।।७५|| केवलज्ञानी का ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है, दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो चुके हैं और जो इष्ट हैं, वे सब प्राप्त हो गये हैं; इसकारण केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है। इस गाथा में यह कहा गया है कि केवली भगवान के सर्व अनिष्ट नष्ट हो गये हैं और लोकालोक को एक साथ जानने-देखने की सामर्थ्य प्रगट हो गई है; इसकारण वे पूर्ण सुखी हैं, अनन्त सुखी हैं।।७५|| इसके बाद 'अन्यच्च ह्न अन्य भी देखिये' ह्न ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक। पर केवली के साथ हों दोनों सदा यह जानिये ||७६|| छद्मस्थों (क्षायोपशमिकज्ञानवालों) के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है; क्योंकि उनके दोनों १. प्रवचनसार, गाथा ६१ २. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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