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________________ ४१६ नियमसार तथा हित (स्रग्धरा) आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः मुक्तिश्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडांतनोति । शोभांसौभाग्यचिह्नांव्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेश: तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलि: स्वस्वरूपं स वेत्ति ।।२७२।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज ‘तथा श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा, निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय उदित हुआ है अपनी महिमा में महिमामय, अचल अनाकुल अज अखंड यह ज्ञानदिवाकर||७४|| नित्य उद्योतवाली सहज अवस्था से स्फुरायमान, सम्पूर्णतः शुद्ध और एकाकार निजरस की अतिशयता से अत्यन्त धीर-गंभीर पूर्णज्ञान कर्मबंध के छेद से अतुल अक्षय मोक्ष का अनुभव करता हुआ सहज ही प्रकाशित हो उठा और स्वयं की अचल महिमा में लीन हो गया। इसप्रकार इस कलश में उस सम्यग्ज्ञानज्योति को स्मरण किया गया है कि जो स्वयं में समाकर, त्रिकालीध्रव निज भगवान आत्मा का आश्रय कर, केवलज्ञानरूप परिणमित हो गई है। ज्ञानज्योति का केवलज्ञानरूप परिणमित हो जाना ही मोक्ष है।।७४।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथाहिं' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) सौभाग्यशोभा कामपीड़ा शिवश्री के वदन की। बढ़ावें जो केवली वे जानते सम्पूर्ण जग ।। व्यवहार से परमार्थ से मलक्लेश विरहित केवली। देवाधिदेव जिनेश केवल स्वात्मा को जानते ||२७२।। व्यवहारनय से यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा सम्पूर्ण विश्व को वस्तुत: जानता है तथा मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी के कोमल मुख कमल पर कामपीड़ा और सौभाग्यचिह्नवाली शोभा को फैलाता है। निश्चयनय से मल और क्लेश से रहित वे देवाधिदेव जिनेश निजस्वरूप अपने भगवान आत्मा को अत्यन्त स्पष्टरूप से जानते हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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