SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुद्धोपयोग अधिकार (गाथा १५९ से गाथा १८७ तक) अथ सकलकर्मप्रलयहेतुभूतशुद्धोपयोगाधिकार उच्यते ह्न जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥१५९।। जानाति पश्यति सर्वं व्यवहारनयेन केवली भगवान् । __ केवलज्ञानी जानाति पश्यति नियमेन आत्मानम् ।।१५९।। अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्तम् । आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासादितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्ति नियमसार परमागम में शुद्धोपयोगाधिकार का आरंभ करते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न “अब समस्त कर्मों के प्रलय करने के हेतुभूत शुद्धोपयोग अधिकार कहा जाता है।" शुद्धोपयोग अधिकार की तात्पर्यवृत्ति टीका की प्रथम पंक्ति में ही टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव घोषणा करते हैं कि यह शुद्धोपयोग समस्त कर्मों का नाश करनेवाला है।' अत: जिन्हें कर्मों से मुक्त होना हो, वे इस शुद्धोपयोगाधिकार की विषयवस्तु को गहराई से समझें। नियमसार परमागम की १५९वीं एवं शुद्धोपयोग अधिकार की पहली गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) निज आतमा को देखें-जानें केवली परमार्थ से। पर जानते हैं देखते हैं सभी को व्यवहार से ||१५९|| व्यवहारनय से केवली भगवान सभी पदार्थों को देखते-जानते हैं। निश्चयनय से केवली भगवान आत्मा को अर्थात् स्वयं को ही देखते-जानते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है । व्यवहारनय से, परमभट्टारक परमेश्वर भगवान; आत्मगुण के घातक घातिकर्मों के नाश से प्राप्त सम्पूर्णत:
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy