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________________ जीव अधिकार कार्यस्वभावश्चेति । तत्र कारणदृष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभावसत्तामात्रस्य परमचैतन्यसामान्यस्वरूपस्य अकृत्रिमपरमस्वस्वरूपाविचलस्थितिसनाथशुद्धचारित्रस्य नित्यशुद्धनिरंजनबोधस्य निखिलदुरघवीरवैरिसेनावैजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव। अन्या कार्यदृष्टिः दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव । अस्य खलु क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य स्वात्मोत्थपरमवीतरागसुखसुधासमुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधानामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मकस्य त्रैलोक्यभव्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थंकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपियगपल्लोकालोकव्यापिनी। इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्तः विभावदर्शनोपयोगोऽप्युत्तरसूत्रस्थितत्वात् तत्रैव दृश्यत इति । स्वभावदर्शनोपयोग भी दो प्रकार का हैह्न कारणस्वभावदर्शनोपयोग और कार्यस्वभावदर्शनोपयोग। कारणदृष्टि तो; औदयिकादि चार विभावस्वभावपरभावों को अगोचर सहज परमपारिणामिकभावरूप निरावरण जिसका स्वभाव है, जो कारणसमयसारस्वरूप है, जो निजस्वभाव सत्तामात्र है, जो परमचैतन्य सामान्यस्वरूप है, जो अकृत्रिम परमस्वस्वरूप में अविचल स्थितिमय शुद्धचारित्रस्वरूप है, जो नित्यशुद्धनिरंजनज्ञानस्वरूप है और जो समस्त दुष्ट पापोंरूप वीर शत्रुसेना की ध्वजा के नाश का कारण है; ऐसे सदा पावनरूप आत्मा के यथार्थ स्वरूप श्रद्धानमात्र ही है। तात्पर्य यह है कि कारणदृष्टि तो शुद्धात्मा की स्वरूपश्रद्धामात्र ही है। और कार्यदृष्टि; दर्शनावरण, ज्ञानावरणादि प्रमुख घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न होती है। जिसने सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीन भुवन को जाना है; निज आत्मा से उत्पन्न होनेवाले परमवीतरागसुखामृत का जो समुद्र है, जो यथाख्यात नामक कार्यशुद्धचारित्रस्वरूप है, जो सादि-अनंत अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक है और जो त्रिलोक के भव्यजनों से प्रत्यक्ष वंदना योग्य है ह्न ऐसे इस क्षायिक जीव तीर्थंकर परमदेव को, केवलज्ञान की भांति यह (कार्यदृष्टि) भी युगपत् लोकालोक में व्याप्त होनेवाली है। इसप्रकार कार्यरूप और कारणरूप से स्वभावदर्शनोपयोग कहा। विभावदर्शनोपयोग अगले चौदहवें गाथासूत्र में बताया जायेगा।" आत्मा में अनन्त गुण हैं। उनमें ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, सुख, चारित्र, वीर्य आदि गुण मोक्षमार्ग में उपयोगी होने से मुख्य माने गये हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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