SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९६ तथा चोक्तम् ह्र ( मंदाक्रांता ) मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढ्यः। नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श ।। २६३।। परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खणा य धम्मकहा । थुदिमंगलसंजुत्तो पंचवि होदि सज्झाउ ।। ७२ ।। (रोला ) मुक्ति सुन्दरी के दोनों अति पुष्ट स्तनों । के आलिंगनजन्य सुखों का अभिलाषी हो । नियमसार अरे त्यागकर जिनवाणी को अपने में ही । थित रहकर वह भव्यजीव जग तृणसम निरखे ॥ २६३ ॥ मुक्तिरूपी स्त्री के पुष्ट स्तन युगल के आलिंगन के सुख की इच्छा वाले भव्यजीव समस्त वचनरचना को सर्वदा छोड़कर, नित्यानन्द आदि अतुल महिमा के धारक निजस्वरूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगतजाल (लोकसमूह) को तृण समान तुच्छ देखते हैं। इस छन्द में टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव मुक्ति को स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हुए जिसप्रकार के विशेषणों का प्रयोग करते हैं; उनसे कुछ रागी गृहस्थों को अनेक तरह के विकल्प खड़े होते हैं। उनके वे विकल्प उनकी ही कमजोरी को व्यक्त करते हैं; क्योंकि मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव तो पूर्ण ब्रह्मचारी भावलिंगी सन्त थे। कहा जाता है कि महापुराण के कर्त्ता आचार्य जिनसेन के प्रति भी लोगों में इसप्रकार के भाव उत्पन्न हुए थे; क्योंकि उन्होंने महापुराण में नारी के वर्णन में शृंगार रस का विशेष वर्णन किया था। लोगों के विकल्पों को शान्त करने के लिए उन्होंने खड़े होकर उसी प्रकरण का गहराई से विवेचन किया; फिर भी उनके किसी भी अंग में कोई विकृति दिखाई नहीं दी; तो सभी के इसप्रकार के विकल्प सहज ही शान्त हो गये । अतः उक्त संदर्भ में किसी भी प्रकार के विकल्प खड़े करना समझदारी का काम नहीं है । इसके बाद टीकाकार मुनिराज ' तथा चोक्तं ह्न तथा कहा भी है' ह्र ऐसा लिखकर एक गाथा उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र १. श्रीमूलाचार, पंचाचार अधिकार, गाथा २१९
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy