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________________ जीव अधिकार (मंदाक्रांता ) मोक्षे मोक्षे जयति सहजज्ञानमानन्दतानं निर्व्याबाधं स्फुटितसहजावस्थमन्तर्मुखं च । लीनं स्वस्मिन्सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे स्वस्य ज्योति:प्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम् ।।२१ ।। तथा परिग्रह का आग्रह छोड़ने तथा शरीर की उपेक्षा करके आत्मा की भावना भाने का अनुरोध किया गया है; क्योंकि ऐसा करने से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है ॥१९॥ उक्त पाँच छन्दों में तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला ) यदि मोह का निर्मूलन अर विलय द्वेष का । और शुभाशुभ रागभाव का प्रलय हो गया || तो पावन अतिश्रेष्ठज्ञान की ज्योति उदित हो । ३९ भेदज्ञानरूपी तरु का यह फल मंगलमय ||२०|| मोह का निर्मूलन करने से, प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त राग का विलय करने से तथा द्वेषरूपी ज्ञान से भरे हुए मनरूपी घड़े का नाश करने से, पवित्र, अनुत्तम और नित्य उदि ज्ञानज्योति प्रगट होती है । भेदज्ञानरूपी वृक्ष का यह सत्फल वंदनीय है, जगत् को मंगलरूप है। उक्त छन्द में भेदज्ञान और ज्ञानज्योति की वंदना की गई है ॥२०॥ सहजज्ञान की महिमा बतानेवाले चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला ) जिसकी विकसित सहजदशा अंतर्मुख जिसने । तमोवृत्ति को नष्ट किया है निज ज्योति से ॥ सहजभाव से लीन रहे चित् चमत्कार में । सहजज्ञान जयवंत रहे सम्पूर्ण मोक्ष में ||२१|| आनन्द जिसका विस्तार है, जो अव्याबाध है, जिसकी सहज दशा विकसित हो गई है, जो अन्तर्मुख है, जो अपने में अर्थात् सहज विलसते चित्चमत्कार मात्र में लीन है, जिसने निजज्योति से अज्ञानांधकार को नष्ट किया है और नित्य अभिराम है; वह सहजज्ञान सम्पूर्ण मोक्ष में जयवंत वर्तता है । इस छन्द में सहजज्ञान को अव्याबाध सहजानन्दमय ज्योतिस्वरूप बताया गया है और उसके जयवंत रहने की भावना व्यक्त की गई है ।। २१ ।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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