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________________ निश्चयपरमावश्यक अधिकार ३७३ सादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति । आसन्नभव्यतारूपी गुण का उदय होने पर परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परमतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध निश्चय परिणति द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि शुद्ध निश्चय परिणति प्राप्त होने पर ही निर्वाण को प्राप्त करता है।" यद्यपि इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि जो जीव संयत होने पर भी शुभभाव में प्रवर्त्तता है, वह अन्यवश है; इसलिए उसे आवश्यकरूप कर्म नहीं है; तथापि तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव गाथा का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए आरंभ में ही लिख देते हैं कि इस गाथा में अशुद्ध अन्तरात्मा का कथन है। 'संयत' पद का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि वह जिनागम सम्मत आचरण का पालन करता है, जिनागम का अध्ययन करता है, प्रत्याख्यान करता है, अर्हन्त भगवान की स्तुति करता है, प्रतिक्रमण करता है; अनशनादि छह बाह्य तप और प्रायश्चित्तादि छह अंतरंग तपों में उत्साहित रहता है। इसप्रकार वह न केवल जिनागम का अध्येता है, अपितु उसे जीवन में अपनाता भी है, आचरण में भी लाता है। ऐसा संयत होने पर भी अन्यवश ही है, स्ववश नहीं, निश्चय परमावश्यक का धारी नहीं है; क्योंकि परमतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप परिणमित नहीं होता। इसलिए वह अन्यवश ही है, स्ववश नहीं। उसके भविष्य के बारे में उनका कहना यह है कि वह अन्यवश श्रमण शुभोपयोग के फलस्वरूप प्रशस्तरागरूप अंगारों से सिकता हुआ क्लेश पाता है। अन्त में ऐसा भी लिखते हैं कि वह आसन्नभव्य सद्गुरु के प्रसाद से प्राप्त परमतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान स्वरूप शुद्धनिश्चय परिणति के द्वारा निर्वाण को प्राप्त करता है। उक्त सम्पूर्ण स्थिति पर गंभीरता से विचार करने पर विचारणीय बात यह है कि टीकाकार मुनिराज सबसे तो यह कह देते हैं कि यह अशुद्ध अंतरात्मा का कथन है और बीच में यह भी कहते हैं कि वह परमतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यान और शुक्लध्यान को नहीं जानता। इसीप्रकार उसकी स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि वह अन्यवश श्रमण शुभोपयोग के फलस्वरूप प्रशस्तरागरूप अंगारों में सिकता हआ क्लेश पाता है। अन्ततः यह कह देते हैं कि वह आसन्नभव्य सद्गुरु के प्रसाद से प्राप्त परमतत्त्व के श्रद्धान-ज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्धनिश्चय परिणति के द्वारा निर्वाण को प्राप्त करता है। उक्त स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि वह ज्ञानी है या अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि है या
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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