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________________ निश्चयपरमावश्यक अधिकार ३६९ (शार्दूलविक्रीडित) कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहित: सद्धर्मरक्षामणिः । सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनदेवैश्च संपूज्यते मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।।२४१।। इसके बाद मुनिराज पाँच छन्द लिखते हैं, उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न (ताटक) त्रिभुवन घर में तिमिर पुंज सम मुनिजन का यह घन नव मोह। यह अनुपम घर मेरा है- यह याद करें निज तृणघर छोड़।।२४०|| मानो जैसे तीन लोकरूपी मकान में घना अंधकार प्रगाढ़रूप से भरा हो, वैसा ही द्रव्यलिंगी मनियों का यह अभिनव तीव्र मोह है; जिसके वश वैराग्यभाव से घास के घर को छोड़कर भी वे वसतिका (मठादि) में एकत्व-ममत्व करते हैं। इस छन्द में आश्चर्य व्यक्त किया गया है कि जिसने वैराग्यभाव से समस्त परिग्रह का त्याग कर नग्न दिगम्बर दशा स्वीकार की; वह उत्कृष्ट पद प्रतिष्ठित होने पर भी वे मठमन्दिरादि में एकत्व-ममत्व करते हैं। यह सब कलयुग का ही माहात्म्य है।।२४०|| दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (ताटंक) ग्रन्थ रहित निग्रंथ पाप बन दहें पुजें इस भूतल में। सत्यधर्म के रक्षामणिमुनि विरहित मिथ्यामल कलि में||२४१|| कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्व आदि कीचड़ से रहित सद्धर्मरूपी रक्षामणि के समान समर्थ मुनिपद धारण करता है, जिसने सभी प्रकार के परिग्रहों को छोड़ा है और जो पापरूपी वन को जलानेवाली अग्नि के समान है; ऐसे वे मुनिराज इस कलयुग में भी सम्पूर्ण भूतल में और देवलोक के देवों से भी पूजे जाते हैं। इस कलश में यही कहा गया है कि यद्यपि आत्मानुभवी स्ववश मुनिराजों के दर्शन सुलभ नहीं हैं; तथापि ऐसा भी नहीं है कि उनके दर्शन असंभव हों। उनका अस्तित्व आज भी संभव है और पंचमकाल के अन्त तक रहेगा। दुर्भाग्य से यदि आपको आज सच्चे मुनिराजों के दर्शन उपलब्ध नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि इस काल में सच्चे मुनिराजों का अस्तित्व ही संभव नहीं है; क्योंकि शास्त्रों के अनुसार उनका अस्तित्व पंचमकाल के अन्त तक रहेगा ।।२४१।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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