SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चयपरमावश्यक अधिकार (गाथा १४१ से गाथा १५९ तक) अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते । जोण हवदि अण्णवसोतस्स दुकम्मभणंति आवासं। कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।।१४१।। यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम्। कर्मविनाशेनयोगो निर्वृत्तिमार्ग इति प्ररूपितः ।।१४१।। अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्तम् । यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः। विगत दस अधिकारों में क्रमश: जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, परम आलोचना, शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति की चर्चा हुई। अब इस ग्यारहवें अधिकार में निश्चय परम आवश्यक की चर्चा आरंभ करते हैं। इस अधिकार की पहली गाथा और नियमसार शास्त्र की १४१वीं गाथा की उत्थानिका लिखते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न “अब व्यवहार छह आवश्यकों के प्रतिपक्षी शुद्धनिश्चय (शुद्ध निश्चय आवश्यक) का अधिकार कहा जाता है।" गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) जो अन्य के वश नहीं कहते कर्म आवश्यक उसे | कर्मनाशक योग को निर्वाण मार्ग कहा गया ||१४१|| जो जीव अन्य के वश नहीं होता, उसे आवश्यक कर्म कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्य वश नहीं होना ही आवश्यक कर्म है। कर्म का विनाश करनेवाला योगरूप परम आवश्यक कर्म ही निर्वाण का मार्ग है ह्न ऐसा कहा गया है। टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ स्ववश को निश्चय आवश्यक कर्म निरन्तर होता है ह ऐसा कहा गया है। विधि के अनुसार परमजिनमार्ग के आचरण में कुशल जो जीव निरन्तर अन्तर्मुखता के कारण
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy