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________________ परमभक्ति अधिकार ३५७ धूटिकापीवरस्तनभरगाढोपगूढ निर्भरानन्दपरमसुधारसपूरपरिततृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजना: स्फुटितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति । (शार्दूलविक्रीडित) नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान् श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान् । पौलोमीप्रभृति-प्रसिद्धदिविजाधीशांगना-संहतेः शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे ।।२३१।। निर्वाणरूपी वधू के अति पुष्ट स्तन के गाढ़ आलिंगन से सर्व आत्मप्रदेश में अत्यन्त आनन्द रूपी परमामृत के पूर से परिपुष्ट हुए हैं। इसलिए हे प्रगट भव्यत्व गुणवाले महाजनो ! तुम निज आत्मा को परम वीतरागी सुख देनेवाली इस योगभक्ति को निर्मल भाव से करो।" ___ परमभक्ति अधिकार के उपसंहार की इस गाथा और उसकी टीका में भरतक्षेत्र की वर्तमान चौबीसी का उदाहरण देते हुए यह कहा है कि जिसप्रकार ऋषभादि से महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों ने निश्चयरत्नत्रय रूप इस परम योगभक्ति से अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त किया है; उसीप्रकार हम सब भी इस योगभक्ति को धारण कर अनन्त अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करने का अभूतपूर्व पुरुषार्थ करें ।।१४०।। उपसंहार की इस गाथा के उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव सात छन्द लिखते हैं: जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (वीरछन्द) शद्धपरिणति गुणगुरुओं की अदभत अनुपम अति निर्मल। तीन लोक में फैल रही है जिनकी अनुपम कीर्ति धवल ।। इन्द्रमुकुटमणियों से पूजित जिनके पावन चरणाम्बुज। उन ऋषभादि परम गुरुओं को वंदन बारंबार सहज ||२३१।। गुणों में बड़े, तीन लोक की पुण्य राशि, देवेन्द्रों के मुकुटों की किनारी में जड़ित प्रकाशमान मणियों की पंक्ति से पूजित, शचि आदि इन्द्राणियों के साथ इन्द्र द्वारा किये जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्द से शोभित तथा शोभा और कीर्ति के स्वामी राजा नाभिराय के पुत्र आदिनाथ आदि चौबीस तीर्थंकरों जिनवरों की मैं स्तुति करता हूँ। ___ चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति वाचक इस छन्द में उन्हें गुणों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है, सर्वाधिक पुण्यशाली कहा गया है। इन्द्र लोग जब उनके चरणो मे नमस्कार करते है, तब उनके मुकुटों में लगी मणियाँ भी उनके चरणों के स्पर्श का लाभ ले लेती हैं। इन्द्रों की इस भक्ति मुद्रा का वर्णन अनेक भक्ति रचनाओं में विविध प्रकार से हुआ है ।।२३१।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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